Sunday, November 15, 2009

क्षितिज - एक प्रयोग


आज से छ: साल पहले जब क्षितिज के सम्पादन और प्रकाशन की शुरुआत हुई थी तब कोई बहुत बड़ी महत्त्वाकांक्षा नहीं थी इसके पीछे। खेल-खेल में शुरु हुई इस लघु पत्रिका ने प्रयोगों, गुणवत्ता और स्तरीयता के नये आयाम स्थापित किये। दो साल के अंदर यह पत्रिका अमेरिका से निकलकर मध्यपूर्व, भारत और यूरोप होते हुए सिंगापुर, आस्ट्रेलिया और जापान तक पहुंची। लोगों ने इसे सराहा, सहयोग दिया और इसके प्रचार-प्रसार में मदद की। एक साल के बाद २००४ में इसका वार्षिकांक प्रिन्ट रूप में प्रकाशित हुआ। एक साथ प्रिन्ट और ईलेक्ट्रानिक रूप में इसका प्रकाशन २००५ के अंत तक कायम रहा। उसके एक साल बाद तक सिर्फ़ ईलेक्ट्रानिक/वेब रूप में इसका प्रकाशन २००६ तक जारी रहा। आज भी यदा-कदा लोगों के पत्र, रचनायें और फोन आते हैं क्षितिज के प्रकाशन के सम्बंध में। बहुत लोगों ने अनुरोध भी किया कि इसका प्रकाशन फिर से प्रारम्भ करें। लेकिन इसको फिर से शुरु नहीं करने के सम्बंध में मुझे बहुत सोचने की आवश्यकता नहीं पड़ी। यह चर्चा एक ऐसे संदर्भ की तरफ हमें ले जाती है जहां हिंदी की लघुपत्रिकाओं का बड़ा संघर्ष, हिन्दी भाषा और उसके लेखक/पाठक/प्रकाशक का वर्तमान और भविष्य शामिल है। यह एक बड़ा विषय है और इस पर आम तौर पर चर्चा चलती रहती है। मेरा मानना है कि हम चर्चा करने और समस्याओं को खड़ी करने में दक्ष हैं। दूसरे शब्दों में अगर कहें तो हम समस्या उन्मूलक नहीं वरन समस्याजीवी हैं। राजनीति के लिये यह प्रवृति समीचीन है। अगर समस्या नहीं हो तो समाधान करने वालों की आवश्यकता ही नहीं होगी। ऐसे में उनका अस्तित्त्व खतरें में पड़ जायेगा। धीरे-धीरे यही प्रवृति भाषा और साहित्य में आ गयी। इसके कारणों की छानबीन मैं इसके विशेषज्ञों पर छोड़ता हूं। कुछ बातें जो मेरी दृष्टि में गुजरी हैं उनमें से प्रमुख हैं -
१. हिंदी में पत्रिकाओं की तादाद आवश्यकता से ज्यादा है।
२. जहां तादाद ज्यादा है गुणवत्ता और स्तरीयता की भारी कमी है।
३. हिंदी पढ‍ने और लिखने के प्रति लोगों का रुझान तेजी से गिरा है। लिखने वाले ही आपस में पढ रहे हैं। शुद्ध पाठक वर्ग लगभग लुप्तप्राय हो गया है।
४. लेखन-पठन-पाठन-सम्पादन-प्रकाशन हर जगह अनुशासन की भारी कमी है।
५. पूरी प्रक्रिया भविष्योन्मुखी न होकर अतीत के गुणगान और वर्तमान के रोने में अटकी पड़ी है।
६. नये प्रयोगों और शिल्प का भारी अभाव है।





क्षितिज - कुछ तथ्य

सितम्बर २००३ - क्षितिज का पहला अंक प्रकाशित (पीडीएफ फाईल/द्विमासिक ई-पत्रिका)
अगस्त २००४ - क्षितिज का वार्षिकांक प्रकाशित (प्रिंट और ईलेक्ट्रानिक दोनों रूप में त्रैमासिक पत्रिका उपलब्ध)
अक्तूबर २००४ - क्षितिज इंकार्पोरेटेड का पंजीकरण एक अलाभकारी संस्था के रूप में
जनवरी २००५ - क्षितिज का वेबसाईट प्रकाशित / क्षितिज के सभी अंक वेब पर उपलब्ध
जनवरी २००६ - क्षितिज का सिर्फ ईलेक्ट्रानिक प्रकाशन जारी
दिसम्बर २००६ - क्षितिज का १६ वां और आखिरी अंक प्रकाशित
संस्थापक-सम्पादक - अमरेन्द्र कुमार
कला-सम्पादक - हर्षा प्रिया सिन्हा

क्षितिज - कुछ वैशिष्टय
१. पी.डी.एफ फाईल में सम्भवत: हिंदी की पहली ईलेक्ट्रानिक पत्रिका प्रकाशित (२००३)
२. कला-वीथिका का समावेश / कला (रेखांकन/चित्र) और साहित्य की संतुलित प्रस्तुति
३. सभी उम्र के कलाकारों और लेखकों का समावेश - एक ही अंक में ५ से ७५ वर्ष के लेखक/कलाकार सम्मिलित
४. साहित्य-कला के साथ-साथ विज्ञान-अभियंत्रण-प्रबंध सम्बंधित विषयों पर आलेख सम्मिलित
५. वैश्विक भागीदारी और वितरण (अमेरिका से सिंगापुर-आस्ट्रेलिया तक)
६. क्षितिज के प्रत्येक अंक का एक वरिष्ठ साहित्यकार को समर्पित होना
७. विभिन्न विधाओं और क्षेत्रों में योगदान देने के लिये १२ "क्षितिज सम्मान" का आरम्भ

अगर आप क्षितिज के किसी अंक को देखना-पढना चाहें तो मुझे सम्पर्क कर सकते हैं।

Wednesday, October 7, 2009

हिन्दी ग़ज़ल

(1)

हुस्न के जो ये नज़ारे नहीं होते
हम ये दिल कभी हारे नहीं होते।

चढ जाते जो सबके होठों पर
वो गीत फिर कंवारे नहीं होते।

तमाम नफ़रतों के बलबलों में
इश्क करने वाले सारे नहीं होते।

मात खायी है हमने तो हर्ज़ नहीं
प्यार करने वाले बेचारे नहीं होते।

जो जगमगाते हरदम उंचाई से
सब के सब सितारे नहीं होते।

दीखते दूर से मौजों के पार जो
ठहरे हुए सब किनारे नहीं होते।

इस दिल को यकीन ही था कब
कि लूटने वाले सहारे नहीं होते।

देना था दगा एक रोज आखिर
दोस्त, काश हम तुम्हारे नहीं होते।

(2)

ठोस भी कभी तरल हो जायेगा
मसला यह भी हल हो जायेगा।

फ़ागुन का रंग जो चढा कभी
चैती बैरागी विकल हो जायेगा।

सच एक था और रहेगा एक पर
अमृत तो कभी गरल हो जायेगा।

पहले से जो तुमने की तैयारियां
जीवन का पर्चा सरल हो जायेगा।

पाकर संग फूलों का एक दिन
कांटा भी कोमल हो जायेगा ।


(3)

हादसों का आशियाना आदमी
खुद से हुआ बेगाना आदमी ।

हर हसरत आखिरी थी लेकिन
हसरतों का ही निशाना आदमी।

दो फूल खिल उठे दामन में कभी
कांटों भरा बाग पुराना आदमी ।

चाहे रोते रहे या कि हंसते रहे
छेडता रहा नया तराना आदमी ।

लोग आते रहे, लोग जाते रहे
बनता रहा अफ़साना आदमी ।

घर बनते रहे हर शहर में लेकिन
बिखरता हुआ पर ठिकाना आदमी।

(4)
नियति एक कुशल व्यापारी है
काम की खूब समझदारी है।

बेचती है खुशियां गिन गिनकर
फिर भी दुनिया गम की मारी है।

मिलते हैं लोग गले सरहद पर
घर में बंटने की पर बीमारी है।

अंधेरा हो घना भले जितना
जुगनू की चमक पर भारी है।

दिखावे का गुलशन है उनका
सच्ची अपने मन की क्यारी है।

(5)

सेवा का वो अवसर चाहते हैं
बदले में कार व घर चाहते हैं।

भले न हो पाय इस्तेमाल धन का
नये साल में नया कर चाहते हैं।

खुद घूमें बुलेट-प्रूफ़ कार में भले
देश हेतु जनता का सर चाहते हैं।

ढह रही सुरक्षा की दीवारे पर
ईंट के जबाब में पत्थर चाहते हैं।

चमक जायेगा एक दिन वतन अपना
चुनावी वादों का असर चाहते हैं ।

उडाना चाहते उंचे आकाश में
परिन्दे पर वे बे-पर चाहते हैं ।

(6)


आज वन से हरापन गया
कि जीवन से नयापन गया।

रिश्तों की बाढ आयी तो
उनका पर अपनापन गया।

घर में बने कमरे इतने
कि आंगन का खुलापन गया।

मिलाकर हिंदी में अंग्रेजी
बोली का पिछ्डापन गया।

प्रसाद की कामायनी गयी
निराला का निरालापन गया।

उंचे समाज में रहने वाले
बच्चों का तोतलापन गया।

भेडियों की बस्ती में आये
हाथी का मतवालापन गया।


(7)

बचपन का निर्मल मन गया
सोच से आज यौवन गया ।

छतें पडी शहर में इतनी कि
सबके सर से गगन गया ।

बहुत पाने के प्रयास में
बचा खुचा भी धन गया ।

सबका अपना-अपना कमरा
साझे का आंगन गया ।

हम हुये धर्मनिर्पेक्ष इतने
आरती गयी, हवन गया।

मेल जोल में वे आगे गये
तेरे मेरे में यह वतन गया।

आंख रह्ते अंधे हुये ही
उसपर मन का नयन गया।

सर्वाधिकार (Copyright) - अमरेन्द्र कुमार

Monday, September 21, 2009

सर्वेक्षण - प्रवासी साहित्य

पिछले सर्वेक्षण का विषय था - हिन्दी भाषा एवं साहित्य - संकट और संभावना । उसमें पूछे गये प्रश्नों के जो उत्तर मिलें उसके आधार पर कोई निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता। संगीता पुरी जी ने अवश्य लिखा कि हिन्‍दी की अवनति के सबसे बडे कारण तो पाठक की कमी होनी चाहिए। उत्तर नहीं मिले उसके कई कारण हो सकते हैं। खैर, इस प्रक्रिया को जारी रखते हुए इस बार के सर्वेक्षण का विषय मैंने चुना है - प्रवासी साहित्य। पिछले कुछ समय से "प्रवासी" शब्द भारतीय जनमानस में कई कारणों से ध्यानाकर्षण का केन्द्र बना हुआ है। जाहिर है साहित्य भी इससे अछूता नहीं। लघु पत्रिकाओं का प्रवासी अंक निकाला जाना, प्रवासियों के लिये पत्रिकाओं का प्रकाशन, प्रवासी सम्मेलन, प्रवासी पुरस्कार आदि "प्रवासी" की सत्ता और महत्ता को इंगित करते हैं। क्या है यह प्रवासी और प्रवासी साहित्य ? आईये जानें आपके विचार..

प्रश्न १ . आपकी दृष्टि में प्रवासी साहित्य क्या है ?
क) विदेश में बसे भारतीय (प्रवासी) द्वारा रचित साहित्य
ख) विदेश के परिवेश को रेखांकित करता साहित्य
ग) प्रवासी साहित्य जैसा कुछ होता नहीं
घ) अन्य (अपने विचार ५०-१०० शब्दों में प्रगट करें)

प्रश्न २ . आपकी दृष्टि में क्या प्रवासी साहित्य को भारत में रचे जा रहे साहित्य से अलग देखा जाना चाहिये ?
क) हां - क्योंकि तब उसका एक अलग मापदंड के तहत मूल्यांकन किया जा सकता है
ख) हां - क्योंकि प्रवासी परिवेश को समझने के लिये यह आवश्यक है
ग) नहीं - क्योंकि साहित्य साहित्य होता है देशी या प्रवासी नही
घ) अन्य (अपने विचार ५०-१०० शब्दों में प्रगट करें)

प्रश्न ३ . आपकी दृष्टि में प्रवासी साहित्य का स्तर कैसा है ?
क) उच्च
ख) साधारण
ग) निम्न
घ) अन्य (अपने विचार ५०-१०० शब्दों में प्रगट करें)

प्रश्न ४. आपकी दृष्टि में भारत में रचे जा रहे साहित्य की तुलना में प्रवासी साहित्य किस स्तर का है ?
क) बेहतर
ख) समकक्ष
ग) निम्न
घ) तुलना का कोई अर्थ नहीं
च) अन्य (अपने विचार ५०-१०० शब्दों में प्रगट करें)

एक बार फिर आपकी भागीदारी की अपेक्षा है। आप अपने मित्रों-परिचितों को भी इसमें भाग लेने के लिये प्रेरित कर सकते हैं।
सर्वेक्षण में भाग लेते समय निम्न बातों पर ध्यान दें -
१. यह आपकी स्वेच्छा है।
२. यह विचारों के विनिमय का मंच है हार-जीत का नहीं।
३. पूर्वाग्रहों, वैचारिक दृढता और अतिशयता से बचें ।
४. आप अपने उत्तर अगर सार्वजनिक रूप से प्रगट नहीं करना चाहें तो मुझे मेरे निजी ई-मेल पर भेज सकते है - amarendrak03@yahoo.com (कृपया ध्यान दें - 3 से पहले "शून्य" है)
5. इसका संदर्भ सार्वजनिक, सार्वदेशिक और सार्वकालिक है।
६. प्रश्नों के एक से अधिक उत्तर सम्भव हैं और अंतिम विकल्प के रूप अपने विचार ५०-१०० शब्दों में प्रगट कर सकते हैं।

Sunday, August 23, 2009

सम्पर्क

पिछले कुछ दिनों हिंदी के तीन प्रमुख साहित्यकारों से सम्पर्क का सौभाग्य मिला - उदय प्रकाश जी, डा. कमल किशोर गोयंका जी और उषा प्रियम्वदा जी।
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मेरे लिखे एक ई-मेल के उत्तर में उदय जी ने लिखा -

Friday, May 1, 2009
प्रिय अमरेन्द्र जी,
आपका पत्र पाकर बहुत प्रसन्नता हुई . इस पत्र के माध्यम से आपसे परिचित होना भी सुखद था. आपका ब्लाग भी मैंने देखा. अब पेंगुइन से प्रकाशित आपका संग्रह पढ़ने की इच्छा जागृत हुई हैं. ज़ल्द ही मैं इसे प्राप्त करूँगा क्यों की वहां से मेरी भी ४-५ किताबें है.
और आप कैसे है? यह सचमुच बहुत सुखद हैं कि आप अपनी भाषा, देश और साहित्य से इतनी दूर रह कर भी जुड़े है.
शुभकामनाओं के साथ.
उदय प्रकाश
***************

मेरा भेजा ई-मेल -


2009/4/28
उदय प्रकाश जी,
नमस्ते !
आशा है कि आप सकुशल और सानंद होंगे।
आपके नाम से पहले मैं परिचित था और अब आपके ब्लाग को भी पढता रहता हूं। अच्छा लगता है। आपकी पुस्तकें पढने का बहुत मौका मिला नहीं है लेकिन "पीली छतरी वाली लड़की पाकिस्तान में" के अंग्रेजी अनुवाद की समीक्षा पढी तो आपके रचना-कर्म के सम्बंध में जानकारी मिली।
मैं अमेरिका में रहकर काम करता हूं। साथ ही हिंदी लेखन से भी जुडा हूं। मेरा पहला कहानी संग्रह "चूडीवाला और अन्य कहानियां" पेंगुइन इंडिया से २००७ में प्रकाशित हुआ है। आजकल ब्लाग भी लिखने का प्रयास करता हूं समय मिलने पर।
http://amarendrahwg.blogspot.com/
कभी अवकाश मिले तो देखें और अपने विचार दें।

शेष कुशल है।

सादर,

अमरेन्द्र कुमार

*************
उदय प्रकाश जी हिंदी के लब्ध-प्रतिष्ठित कथाकार और उपन्यासकार हैं। उनका अपना ब्लाग है अगर आप देखना और पढना चाहें -
http://uday-prakash.blogspot.com/

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डा. कमल किशोर गोयंका जी ने मेरी पुस्तक "चूडीवाला और अन्य कहानियां" पढने के बाद दिल्ली से मुझे फोन किया। थोडी देर बात करने के बाद मैंने उन्हें फोन किया और लगभग आधे घंटे हमारी बातचीत हुई। पुस्तक की प्रतिक्रिया स्वरूप उन्होंने कहा कि "चूडीवाला" एक सशक्त कहानी है और उसे वही लिख सकता है जो उस पृष्ठभूमि से परिचित है। हमारी चर्चाओं में आपसी परिचय के अतिरिक्त धीरे-धीरे बहुत कुछ शामिल हो गये - प्रवासी साहित्य, हिंदी-अंग्रेजी सम्बंध, भारत और विदेश (खासकर अमेरिका), हिंदी लघु पत्रिकाओं की वर्तमान दशा, विदेशों में हिंदी प्रसार, भाषा-लेखक-पाठक त्रयी आदि। उन सभी बातों का ब्यौरा तो अक्षरश: सम्भव नहीं लेकिन कुछ मुख्य बातों को प्रगट करना चाहूंगा। प्रवासी साहित्य को लेकर उनके विचार बहुत ही साकारात्मक हैं। अपने लेखों और वक्तव्यों के माध्यम से भी उन्होंने प्रवासी साहित्य को हरदम सराहा है और भारत के साहित्यकारों से उन्हें हिंदी साहित्य की मुख्यधारा से जोडने की अपील की है। बातचीत के प्रारम्भ में उन्होंने बताया कि प्रेमचंद साहित्य पर उनकी लिखी बाईस पुस्तकें हैं। वे सम्प्रति सेवानिवृत हैं और दिल्ली के साकेत कालोनी में निवास करते हैं। उन्होंने बताया कि वे वर्ष २००७ में न्यूयार्क में आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन में भाग लेने आये थे। उन्होंने मुझे कहा कि आप नियमित लिखते रहें और पुस्तकों का प्रकाशन भी नियमित कराते रहें। अच्छे लेखन के लिये ये आवश्यक शर्त हैं और इनपर ध्यान देना जरूरी है। भारत के बाहर बसे लेखकों के लिये उनका सुझाव है कि वे भारत की मुख्यधारा साहित्य का गहन अध्ययन करें। इसके लिये एक पुस्तक-क्लब की स्थापना का उन्होंने सुझाव दिया। इसके लिये सहयोग के रूप में भारत से पुस्तक भेजने की व्यवस्था का कार्यभार लेने की पेशकश भी उन्होंने की। उनका मानना है कि यह आने वाली पीढी के लिये भी भारत की संस्कृति से जोडने में कारगर साबित होगा। बातचीत के क्रम में मेरे बताने के बाद उन्होंने आश्चर्य व्यक्त किया कि "क्षितिज" के चार साल के प्रकाशन के बाद उनकों इस बात की जानकारी नहीं मिली। इस संदर्भ में उनकी जागरूकता और उत्सुकता देखकर मुझे बहुत अच्छा लगा। अंत में उन्होंने सम्पर्क में रहने का आग्रह किया जो आज के समय के लिये सुखद और समीचीन है। यह इसलिये भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि साहित्यकारों की दो पीढियों को जोडना या उनसे जुडना कम होता जा रहा है।

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उषा प्रियम्वदा जी ने मेरी पुस्तक की प्रतिक्रिया स्वरूप एक पत्र लिखा जिसका एक अंश यहां दे रहा हूं -


उषा प्रियम्वदा जी हिंदी की लब्ध-प्रतिष्ठित कथाकार-उपन्यासकार हैं और अमेरिका के मैडिसन, विस्कांसिन में रहती हैं।

Sunday, July 19, 2009

हिन्दी भाषा एवं साहित्य - संकट और संभावना

वर्तमान समय को अगर हिन्दी भाषा और साहित्य की अवनति का काल कहा जाये तो सम्भवत: अतिरेक नहीं होगा। आज हिन्दी समाज अन्तर्कलह, आरोप-प्रत्यारोप, वाद-विवाद और वैचारिक शून्यता के अन्धेरे में भटक रहा है। पिछले कुछ दशकों से यही स्थिति बनी हुई है। इससे किसको कितना लाभ मिला यह कहना कठिन है लेकिन जिसको सबसे अधिक हानि हुई है वह स्वयं हिन्दी भाषा और साहित्य है। इसी स्थिति को संदर्भ में रखते हुये मेरे मन में यह विचार आया कि सर्वेक्षण के माध्यम से लोगों की मनोदशा और विचारों को जाना और समझा जा सकता है। मीडिया और प्रबंध जैसे क्षेत्रों में सर्वेक्षण एक सक्षम और सहज मान्य प्रक्रिया है निष्कर्षों तक पहुंचने का लेकिन हिन्दी जगत में इसका प्रयोग मेरी दृष्टि में अभी तक नहीं आया। यह जान लेना आवश्यक है कि किसी सर्वेक्षण के आधार पर निकाले गये निष्कर्ष को पूर्ण प्रमाणिक नहीं कहा जा सकता लेकिन वह(निष्कर्ष) प्रमाणिकता की ओर संकेत अवश्य करता है। साथ ही किसी सर्वेक्षण का परिणाम इस बात पर भी निर्भर करता है कि वह सर्वेक्षण किस समूह के बीच, किस समय और किस परिस्थिति में किया जा रहा है।
अस्तु, इस बार के सर्वेक्षण का विषय है - हिन्दी भाषा एवं साहित्य - संकट और संभावना । आपकी भागीदारी की अपेक्षा है। आप अपने मित्रों-परिचितों को भी इसमें भाग लेने के लिये प्रेरित कर सकते हैं।
सर्वेक्षण में भाग लेते समय निम्न बातों पर ध्यान दें -
१. यह आपकी स्वेच्छा है।
२. यह विचारों के विनिमय का मंच है हार-जीत का नहीं।
३. पूर्वाग्रहों, वैचारिक दृढता और अतिशयता से बचें ।
४. आप अपने उत्तर अगर सार्वजनिक रूप से प्रगट नहीं करना चाहें तो मुझे मेरे निजी ई-मेल पर भेज सकते है - amarendrak03@yahoo.com (कृपया ध्याद दें - 3 से पहले "शून्य" है)
5. इसका संदर्भ सार्वजनिक, सार्वदेशिक और सार्वकालिक है।
६. प्रश्नों के एक से अधिक उत्तर सम्भव हैं और अंतिम विकल्प के रूप अपने विचार ५०-१०० शब्दों में प्रगट कर सकते हैं।


प्रश्न १ . आपकी दृष्टि में हिन्दी जगत का सबसे बडा संकट क्या है ?

क) हिंदी साहित्य की गिरती हुई स्तरीयता और लोकप्रियता
ख) हिंदी प्रकाशकों की सार्थक भूमिका का अभाव
ग) सूचना, प्रसारण और मनोरंजन के अन्य माध्यमों का वर्चस्व
घ) सरकार और संगठनों की सार्थक भूमिका का अभाव
ड) स्वतंत्र हिन्दी लेखकों की आर्थिक निर्भरता
च) वैचारिक गुटबंदियां और साहित्यिक असहिष्णुता
छ) सार्थक आलोचना का अभाव
ज) अन्य (अपने विचार ५०-१०० शब्दों में प्रगट करें)

प्रश्न २ . आपकी दृष्टि में हिन्दी जगत की सबसे बडी सम्भावना क्या है ?
क) हिंदी भाषा और साहित्य का भारत की संस्कृति से अन्योनाश्रय सम्बंध
ख) हिंदी लेखकों का अदम्य उत्साह
ग) सूचना और प्रसारण प्रौद्योगिकि का विकास
घ) हिन्दी फ़िल्मों की बढती लोकप्रियता
ड) हिन्दी का वैश्विक प्रसार और प्रवासी साहित्य
च) अन्य (अपने विचार ५०-१०० शब्दों में प्रगट करें)

Saturday, April 11, 2009

विष्णु प्रभाकर

कोई सुबह या शाम या फिर कोई घडी क्या खबर लेकर हमारे पास आयेगी, हमें पता नहीं होता। हम जीवन भर इसी अंधियारे में भटकते रहते हैं। इस अंधेरी गुफा में कहीं कुछ जब चमक कर बुझ जाता है तो हमें लगता है कि हमने क्या खो दिया और फिर अहसास भी होता है कि जो खो दिया वह कभी हमारा हिस्सा था।

अभी कुछ समय पहले दैनिक जागरण में पढा कि वरिष्ठ साहित्यकार विष्णु प्रभाकर नही रहे। मन उदास हो गया। पिछले कुछ समय से उनके स्वास्थ्य के बारे में अक्सर दैनिक जागरण पर ही समाचार पढने को मिलते थे। आशंका, आशा और सम्भावना की जो आंख-मिचौनी चल ही रही थी आज वह समाप्त हो गयी।

विष्णु प्रभाकर जीवन के प्रति समर्पित आस्थावान साहित्यकार थे।

इसी तरह २००५ में एक लम्बे अंतराल के बाद दैनिक जागरण में कुछ ढूंढ रहा था तो निर्मल वर्मा के दिवंगत होने का समाचार पढा था। लम्बे समय तक मन विचलित रहा।

उनसे मिलने के बारे में सोचा था २००४ की भारत यात्रा के दौरान । गुडगांव में ठहरा हुआ था मैं तब। पता नहीं फिर मन में लगा कि क्या मिलना उचित रहेगा और मैं लौट आया था।

बाद में उनके बारे में अन्य लोगों के संस्मरण पढते हुए लगा कि मुझसे भूल हो गयी। फिर सोचता हूं कि वह मिलना तो सिर्फ़ आमने सामने होना था लेकिन उनकी पुस्तकों के माध्यम से जितना उनको जानता हूं क्या उससे ज्यादा उन्हें देख पाता, जान पाता उनसे मिलकर । घडी दो घडी का मिलना भी क्या...

उनके बारे में एक लेख लिखना चाहा था, कभी पूरा नहीं कर पाया। कुछ लोगों के बारे में कहना-सुनना मुश्किल लगता है और लिखना तो असम्भव...

कोई जो हमारे बहुत-बहुत निकट हो उसे हम देख नहीं पाते, सुन नहीं सकते सिर्फ़ अनुभव कर सकते हैं ।

शायद ईश्वर भी हमारे उतने ही निकट हैं कि हम उन्हें देख नहीं पाते...

समय बीत रहा है, कडियां टूट रही हैं और हम देख रहे हैं। लेकिन किन आंखों से ?

http://in.jagran.yahoo.com/news/national/general/5_1_5384217/

Wednesday, April 8, 2009

लेखन और बाज़ार

बाज़ार को सिर्फ़ खरीद-बिक्री के केन्द्र के रूप में देखा जाय यह जरूरी नहीं। बाज़ार एक प्रकार का अवसर है जिसके अन्तर्गत खरीद-बिक्री है। यह वस्तुओं के विनिमय का आधुनिक रूप है।

कुछ दिनों पहले एक रिपोर्ट पढने को मिला कि भारत के युवा लेखक (हिन्दी) बाज़ारोन्मुख नहीं। दूसरे शब्दों में पश्चिम के बाज़ारवादी लेखन से अलग वे बाज़ार के लिये नहीं लिखते। यह प्रचार भ्रामक हो सकता है। यह एक ऐसी मानसिकता को जन्म देता है जहां मांग-आपूर्ति के स्वाभाविक सिद्धांत का उल्लंघन ही नहीं होता वरन जिससे एक किस्म की अराजकता भी उत्पन्न होती है।

लेखन का मूल और अंतिम उद्देश्य क्रय-विक्रय नहीं, यह सच है। लेकिन क्रय-विक्रय के केन्द्र में जो मांग-आपूर्ति, गुणवत्ता, उपयोगिता और स्पर्धा जैसे साकारात्मक तत्त्व हैं उनपर विचार करना आवश्यक है। स्वांत: सुखाय किस्म का लेखन एक अलग किस्म का लेखन है और उसकी उपयोगिता सिद्ध होने के लिये एक लेखक को संत होने की प्रक्रिया से गुजरना और संत होने की शर्त भी शामिल है, यह ध्यान में रखा जाना चाहिये। हर स्वांत: सुखाय किस्म का लेखन उच्च कोटि का लेखन हो ऐसा जरूरी नहीं और हर उच्च कोटि का लेखन स्वांत: सुखाय हो ऐसा भी जरूरी नहीं। एक उच्च कोटि के लेखन का क्या मापदंड होना चाहिये वह विचारणीय है। किसी भी प्रकार के लेखन के लिये आवश्यक तत्त्व है उसका उपयोगी होना - व्यक्ति, समाज, देश और काल के लिये। अगर कोई वस्तु उपयोगी है तो हम उसका मूल्य भी देने के लिये तैयार होते है। इसलिये एक अच्छे लेखन के लिये उसका बाज़ार में बिक पाना एक सहज ही मापदंड हो जाता है।

आज अगर हम हिंदी समाज में हो रहे लेखन की मात्रा पर गौर करे तो वह आशातीत लगती है। यह एक साकारात्मक रूख है। लेकिन उसके बाज़ार पर ध्यान दें तो स्थिति अगर दयनीय नहीं भी तो बहुत अच्छी भी नहीं। और अगर एक स्वतंत्र हिंदी लेखक की आर्थिक दशा पर गौर करें तो स्थिति और भी साफ हो जायेगी। आज का अधिकांश हिंदी लेखक दोहरी जीवनवृत्ति अपनाने के लिये बाध्य है। और इसके कारण भी हैं। लेकिन ऐसा होने के कारण लेखक अपने और अपने लेखन के साथ पूरा न्याय न कर सकने के कारण वह स्वयं वह सब नहीं पा पाता जो उसे मिलना चाहिये और भाषा-साहित्य-समाज को वह सब नहीं मिल पाता जो उसे मिल सकता था। यही नहीं यह कई किस्म की कुरीतियों को भी जन्म देता है - वैचारिक गुटबंदियां, सरकारी पदों-अनुदानों और पुरस्कारों की होड आदि जिसका खामियाजा न सिर्फ़ साहित्य बल्कि पाठकों और समाज को भी भरना पडता है।

अक्सर यह सुनने को मिलता है कि हिंदी साहित्य का बाज़ार बहुत बडा नहीं है। यह सच है। लेकिन यह जानना जरूरी है कि अगर भारत में अंग्रेजी साहित्य का बाज़ार हिंदी साहित्य से बडा है तो उसके कारण क्या हैं । बात फिर भारत के मध्यवर्ग पर आकर ठहरती है। पिछली सदी से मध्यवर्ग दो टुकडों में बंट या खिंच गया है। उच्च मध्यवर्ग ने उच्च वर्ग की तरह ही साहित्य और समाज से अपने सरोकारों को खत्म कर लिया। निम्न मध्यवर्ग जिसका सरोकार आज भी साहित्य और समाज से ज्यादा है अपने दैनंदिन की उहापोह और समाज के बदले तेवर के बीच आधु्निकता, प्रगतिशीलता और संस्कारों के तिराहे पर किंकर्त्तव्यविमूढ की तरह खडा नज़र आ रहा है। ऐसे में साहित्य की उपयोगिता ही संदिग्ध है तो इसके बाज़ार के अस्तित्व का खतरे में पड जाना स्वाभाविक ही है। तो क्या यह मान लेना चाहिये कि अब कुछ भी नहीं हो सकता ?

नहीं।

आज हम चुनौतियों के बीच जी रहे हैं और ऐसा कोई पहली बार नहीं हो रहा है। हर सभ्यता-साहित्य-संस्कृति के इतिहास में ऐसी परिस्थितियां आती रही हैं । जिन्होंने इनका न सिर्फ़ सामना किया बल्कि इनसे सीखते हुए अपना मार्ग निर्धारित और प्रशस्त किया वे दृढ से दृढतर होते चले गये।

लेखन के उद्देश्य निर्धारित होने चाहिये। समय और समाज के बदलते तेवर के साथ सामंजस्य स्थापित होना चाहिये। लेखन की मात्रा और गुणवत्ता के बीच संतुलन होना चाहिये। लेखकों को लेखन का प्रशिक्षण लेना चाहिये। अभिव्यक्ति के अन्य लोकप्रिय माध्यमों (मीडिया, फ़िल्म, टीवी आदि) के साथ मिलकर एक दूसरे को और उपयोगी और उन्नत होने में मदद करनी चाहिये।

मन में यह विश्वास होना चाहिये कि अगर आज भी सूर, तुलसी, मीरा, प्रेमचंद, प्रसाद, रेणु, मोहन राकेश, निर्मल वर्मा आदि की पुस्तकें बाज़ार में बिकती है, उनकी मांगे हैं तो आज का हिंदी लेखक भी अपने प्रयासों के बल पर आज की पीढी ही नहीं बल्कि आने वाली अनेकानेक पीढियों के बीच अपने लेखन की मांग को न सिर्फ़ बनायेगा बल्कि कायम भी रख पायेगा। इसके लिये हर किसी को बना बनाया रास्ता चुनना नहीं बल्कि स्वयं बनाना और उस पर बढना होगा।

Saturday, March 14, 2009

मिडलैंड आर्टिस्ट गिल्ड द्वारा आयोजित कला प्रदर्शनी









जनवरी-मार्च २००९ के दौरान मिडलैंड आर्टिस्ट गिल्ड द्वारा आयोजित कला प्रदर्शनी में शामिल हर्षा केऔर मेरे कुछ चित्र ।

Sunday, March 8, 2009

बदला लेने से क्या बदल जायेगा

कविता और कहानी में एक फ़र्क और भी है - कविता का टंकण (टाइपिंग) सरल और कहानी का मुश्किल । कहानी के हजारों शब्दों को टाइप करना अपने आप में एक प्रक्रम हो जाता है। पहले का मेरा सारा लिखा किसी दूसरे फांट में है और यही कारण है कि गद्द मुझे स्कैन करके देने पडे और पढने में आप सबको असुविधा हुई। लेकिन अब मैं जो भी लिख रहा हूं वह सब यूनिकोड में इसलिये वह सब आसानी से ब्लाग पर दे पाउंगा। बहरहाल, एक ताज़ा रचना प्रस्तुत है इसका स्वरूप/वर्ग क्या है इसका खुलासा भी अंतिम दो पंक्तियों में कर दिया है -


गुबार है दिल का निकल जायेगा
बदला लेने से क्या बदल जायेगा।

खिलौने जब तक है दुनिया में
मन तो बच्चा है मचल जायेगा।

सहलाते रहने से नासूर बनता है
कुरेदोगे तो कांटा निकल जायेगा।

जरूरी नहीं तोड लाओ चांद-सितारें
दिल मेरा ऐसे भी बहल जायेगा ।

छाछ भी फूंक कर पीते हैं लोग
जिसे जलना है वह जल जायेगा।

छीन लो बैसाखी गिरने दो उसको
आज नहीं तो कल सम्भल जायेगा।

तुम चाहे खेलो नफ़रत की होलियां
प्यार गुलाल का वह मल जायेगा।

मैंने तो सुनायी थी चंद पंक्तियां पर
कोई कविता कह कोई गज़ल जायेगा।

होली की असीम शुभकामनायें !!!


सर्वाधिकार: अमरेन्द्र कुमार
Copyright: Amarendra Kumar
२००९

Sunday, March 1, 2009

कहानी - कुछ सोचा है ?











सर्वाधिकार: अमरेन्द्र कुमार
Copyright: Amarendra Kumar

Saturday, February 28, 2009

क्षणिकायें

रात और दिन

रात झुक जाती है
दिन के कंधे पर
दिन उसे लिये फिरता है
फिर थक जाता है
रात की नींद खुल जाती है
दिन को थपकाती है
सहलाती और सुलाती है
खुद एक आंख में
सारी रात काट देती है
कौन कहता है कि
दिन का विलोम रात है।

उदासी और मुस्कान

मैंने जब भी पूछा
उसकी उदासी का कारण
उसने मुस्कराकर टाल दिया।

युद्ध और शांति

जीता जा सकता है
हर युद्ध को
लेकिन उसके लिये
शांति जरूरी है।

सर्दी और गर्मी

सर्दी की मुठ्ठी गर्म करते ही
गर्मी अपने आप चली आयी ।

सच और झूठ

सच और झूठ में
फ़र्क है सिर्फ़ इतना
सच अभी रूलाता है
झूठ बाद में। - हर्षा प्रिया

सच और झूठ

सच और झूठ में
फ़र्क है सिर्फ़ इतना
सच सच ही रहता है
लेकिन झूठ बदल जाता है।

आदमी और जानवर

आदमी और जानवर में
फ़र्क है।
जानवर जानवर को खाता है
आदमी जानवर और आदमी
दोनों को ही |

भक्त और भगवान

मैं भक्त हूं
और तुम भगवान
मैं तुम्हें जीत लूंगा ।

मैं भगवान हूं
और तुम भक्त
मैं हार जाऊंगा ।

धरती और स्वर्ग

रावण ने सोचा था
कि वह बनायेगा एक पुल
धरती और स्वर्ग के बीच ।

आज भी पुल बन रहे हैं
स्वर्ग भी है
लेकिन धरती कहां है ?


कवि और आलोचक

मैं कवि हूं
और तुम आलोचक
मैं आगे बढता हूं
तुम मेरा अनुसरण करते हो।

मैं आलोचक हूं
और तुम कवि
आगे तुम बढते हो
मैं तुम्हारा मार्ग प्रशस्त करता हूं।


देवता और दानव

देवता ने जीता दानव को
बदले में
दानव ने जीत लिया
आज के आदमी को

देवता और दानव के बीच
आज भी यह संघर्ष जारी है।



मौन एक कविता

मौन एक कविता है
अगर जो कविता
सचमुच की कविता है।


शब्द उर्जा
शब्द उर्जा है
समझदारी से व्यय करो।


कहना और सुनना

बहुत कहने से
कहना तो हो जाता है।
लेकिन सुनना नहीं होता ।


मुक्ति की अभिलाषा

मुझे मुक्ति चाहिये
हर उस चीज से
जो बांधती है
मुझे मुक्ति मिल जायेगी
अगर जो मुक्त हो पाउं
मुक्त होने की अभिलाषा से।


दाग और खूबसूरती

चांद खूबसूरत है
इसलिये ही नहीं
कि उसके पास चांदनी है
पर इसलिये भी कि
उसमें दाग है
दाग खूबसूरती को बढा सकता है।


नया और पुराना

नया कुछ भी नहीं होता
जो होता है
वह पुराने से साक्षात्कार ।

राम और सीता

अगर जो मैं सीता नहीं
तुम भी तो नहीं राम
यही कारण है कि
अब कोइ राम नहीं होता
और न होती कोइ सीता ।



***********

कूकर और कडाही

इंडियन कूकर हूं
इसलिये सीटी बजाता हूं
अगर जो पसंद नहीं तो
बदल दो मुझको
अमेरिकन कूकर
या भारतीय कडाही से।


इंडियन और अमेरिकन कूकर

इंडियन कूकर हूं
इसलिये बज के रूक जाता हूं
अगर जो अमेरिकन होता
बजता ही रहता ....हर्षा प्रिया

कविता का राज़

घर में भी हो सकती है
कविता
अगर जो पत्नी
कवयित्री हो जाय !!!




सर्वाधिकार: अमरेन्द्र कुमार
Copyright: Amarendra Kumar


Sunday, January 25, 2009

कैसे लिखें कहानी

कहानी और उसे लिखने के सम्बंध में मेरे कुछ विचार:





Tuesday, January 20, 2009

पहला ब्लॉग

सुमन घई जी का आभारी हूं जिनकी मदद से मेरा ब्लॉग शुरू हो पा रहा है।


लेखन कितना व्यक्तिगत और कितना सार्वजनिक होना चाहिये - यह प्रश्न मेरे मन-मस्तिष्क में काफ़ी समय से घूम रहा था। लिखना और उसे एक दम से लोगों के बीच बांटना कई बार बहुत सहज नहीं लगता। लेकिन हिन्दी राइटर्स गिल्ड (हिरागि) की स्थापना के बाद ऐसा लगा कि ब्लॉग लिखने का अब उचित अवसर आ गया है।


बहुत दिनों के बाद लिखना भी हो रहा है। ऐसा नहीं कि सृजनरत नहीं रहा, पिछले दो-तीन महीने पेंटिंग बनाने में बीत गये। रूप-रंग-रस-गंध क्या एक ही वस्तु की विभिन्न अभिव्यक्तियां नहीं ?


वसंत-पंचमी पास है (भारत के हिसाब से) तो बचपन की विगत स्मृतियां मन-मस्तिष्क पर दस्तक देने लगीं है। सरस्वती पूजा मेरे प्रिय त्यौहारों में एक है। भारत में कई बार समय की गणना भी त्यौहारों के परिप्रेक्ष्य में होती है - फ़लां बात पिछली होली की है या अमुक घटना दसहरे से पहले घटी थी आदि..

त्यौहार भारत से बाहर भी मनाये जाते हैं लेकिन जितना जुडाव वहां है वह अन्यत्र नहीं। कारण कई हो सकते हैं और उनकी तह में जाने का बहुत औचित्य नहीं।

भारत में वैसे जुडना हर चीज से हो जाता है -गांव-शहर, घर-परिवार, रिश्ते-नाते, स्कूल-कालेज, धरती-आकाश, फूल-पत्ती...

एक कविता प्रस्तुत है - सरस्वती-वंदना। १८ साल पहले की यह कविता उन दिनों की याद दिलाती है जब लिखना एक कौतुक से कम नहीं था - खुद अपने लिखे को कई बार सुन्दर लिखावटों में लिखना, बार-बार पढना और मुग्ध हो जाना - एक करिश्मा से कम नहीं लगता था। यह वही कविता है जिसे पंकज ने मुज़फ़्फ़रपुर में जानकी वल्लभ शास्त्री जी को उनके निवास पर पढकर सुनायी थी।

















अस्तु, आज के लिये इतना ही। अगले ब्लॉग में "कैसे लिखे कहानी" लेख भेजने का प्रयास करुंगा।

वसंत-पंचमी की असीम शुभकामनायें !!!