Sunday, March 28, 2010

कला और युगबोध

आहत विश्व के प्रतिपल रुदन में
खींची मुस्कान की रेखा सस्मित ।
जग की व्यथा, निज के संतप्त मन में
नव चेतना ले कला हुई अवतरित ।

सृष्टि का चक्र जब से है चला
युग बदले और जग भी है बदला ।
मनुज कई बार गिरा, गिरकर सम्भला
गुफा से निकल अब अंतरिक्ष को निकला।

उंचे आदर्शों के उतंग शिखरों से
कवि, निकले तेरी ऐसी कविता धारा ।
फोड़ कर संकुचित वृत्ति के पाषाणों को
बहा ले जाये जो कलुषित विचार सारा ।

व्यक्त करना क्या उन्हें जो स्वयं मूर्त है
व्यक्त करो उन्हें जो सदा से अमूर्त है ।
रोको न उन्हें जो जीवन पथ में आगे बढ़े
जगाओ जिनकी चेतना अब तक सुप्त है।

दंगा, क्रू्रता और उत्पीड़न के पृष्ठों पर
चित्रकार, डालो प्रेम और स्नेह के रंग ।
तूलिका तेरी बन जाये अजेय शस्त्र
जीतो पशुता को मनुजता के संग संग ।

हो चुका रोना बहुत व्यतिक्रमों का
संगीतज्ञ, उठाओ तुम अब सितार ।
रहे न लालसा फिर जग में कुछ पाने का
सुनके जिस दिव्य राग को एक बार ।

ले कोमल भावों की मिट्टी, सरल सी कल्पना
मूर्तिकार, बना सौंदर्य की ऐसी कोई प्रतिमा ।
"गति ही जीवन है" बस असत्य हो जाये
भर दे उसमें चपला सी सजीव चपलता ।

२५ मई, १९९५