Wednesday, October 7, 2009

हिन्दी ग़ज़ल

(1)

हुस्न के जो ये नज़ारे नहीं होते
हम ये दिल कभी हारे नहीं होते।

चढ जाते जो सबके होठों पर
वो गीत फिर कंवारे नहीं होते।

तमाम नफ़रतों के बलबलों में
इश्क करने वाले सारे नहीं होते।

मात खायी है हमने तो हर्ज़ नहीं
प्यार करने वाले बेचारे नहीं होते।

जो जगमगाते हरदम उंचाई से
सब के सब सितारे नहीं होते।

दीखते दूर से मौजों के पार जो
ठहरे हुए सब किनारे नहीं होते।

इस दिल को यकीन ही था कब
कि लूटने वाले सहारे नहीं होते।

देना था दगा एक रोज आखिर
दोस्त, काश हम तुम्हारे नहीं होते।

(2)

ठोस भी कभी तरल हो जायेगा
मसला यह भी हल हो जायेगा।

फ़ागुन का रंग जो चढा कभी
चैती बैरागी विकल हो जायेगा।

सच एक था और रहेगा एक पर
अमृत तो कभी गरल हो जायेगा।

पहले से जो तुमने की तैयारियां
जीवन का पर्चा सरल हो जायेगा।

पाकर संग फूलों का एक दिन
कांटा भी कोमल हो जायेगा ।


(3)

हादसों का आशियाना आदमी
खुद से हुआ बेगाना आदमी ।

हर हसरत आखिरी थी लेकिन
हसरतों का ही निशाना आदमी।

दो फूल खिल उठे दामन में कभी
कांटों भरा बाग पुराना आदमी ।

चाहे रोते रहे या कि हंसते रहे
छेडता रहा नया तराना आदमी ।

लोग आते रहे, लोग जाते रहे
बनता रहा अफ़साना आदमी ।

घर बनते रहे हर शहर में लेकिन
बिखरता हुआ पर ठिकाना आदमी।

(4)
नियति एक कुशल व्यापारी है
काम की खूब समझदारी है।

बेचती है खुशियां गिन गिनकर
फिर भी दुनिया गम की मारी है।

मिलते हैं लोग गले सरहद पर
घर में बंटने की पर बीमारी है।

अंधेरा हो घना भले जितना
जुगनू की चमक पर भारी है।

दिखावे का गुलशन है उनका
सच्ची अपने मन की क्यारी है।

(5)

सेवा का वो अवसर चाहते हैं
बदले में कार व घर चाहते हैं।

भले न हो पाय इस्तेमाल धन का
नये साल में नया कर चाहते हैं।

खुद घूमें बुलेट-प्रूफ़ कार में भले
देश हेतु जनता का सर चाहते हैं।

ढह रही सुरक्षा की दीवारे पर
ईंट के जबाब में पत्थर चाहते हैं।

चमक जायेगा एक दिन वतन अपना
चुनावी वादों का असर चाहते हैं ।

उडाना चाहते उंचे आकाश में
परिन्दे पर वे बे-पर चाहते हैं ।

(6)


आज वन से हरापन गया
कि जीवन से नयापन गया।

रिश्तों की बाढ आयी तो
उनका पर अपनापन गया।

घर में बने कमरे इतने
कि आंगन का खुलापन गया।

मिलाकर हिंदी में अंग्रेजी
बोली का पिछ्डापन गया।

प्रसाद की कामायनी गयी
निराला का निरालापन गया।

उंचे समाज में रहने वाले
बच्चों का तोतलापन गया।

भेडियों की बस्ती में आये
हाथी का मतवालापन गया।


(7)

बचपन का निर्मल मन गया
सोच से आज यौवन गया ।

छतें पडी शहर में इतनी कि
सबके सर से गगन गया ।

बहुत पाने के प्रयास में
बचा खुचा भी धन गया ।

सबका अपना-अपना कमरा
साझे का आंगन गया ।

हम हुये धर्मनिर्पेक्ष इतने
आरती गयी, हवन गया।

मेल जोल में वे आगे गये
तेरे मेरे में यह वतन गया।

आंख रह्ते अंधे हुये ही
उसपर मन का नयन गया।

सर्वाधिकार (Copyright) - अमरेन्द्र कुमार