Wednesday, June 9, 2010

एक दिन सुबह

अपनी नौकरी से रिटायर होने के बाद एक एकदम नये और अंजाने शहर में बसने का फैसला मेरा ही था। फैसलों में किसी की राय लेना और फैसला में उन राय-मशवरों की भूमिका में बहुत फर्क होता है। मैं नहीं चाहता था कि मेरी नौकरी और नौकरी से जुड़ी चीजे मुझे बाद के जीवन में दूर तक पीछा करे। यह खासकर बहुत सहज होता है उन नौकरियों में जिस तरह की नौकरी में मैं था। भारतीय प्रशासनिक सेवा में बहाली से लेकर, पचासों शहरों में सैकड़ों पदों पर काम करते हुए दिल्ली में सचिव बनने और फिर रिटायर होने के पहले के कुछ अंतिम दिनों तक जिस भूल-भूलैया से गुजरता हुआ मेरा जीवन बीता था उसे बाद में मैं बदले हुए रूप में बिताना चाहता था। बहुत लोग मेरे ही बैच के जो साथ में रिटायर हुए थे उनकी योजनायें आपस में मिलती थीं। उनमें से ज़्यादातर लोग मेट्रोपॉलटिन शहरों में बस गये, दिल्ली, मुम्बई, कलकत्ता आदि। कुछ अपने विदेश में रह रहे अपने बच्चों के पास चले गये। कुछ जो दक्षिण भारत से आये थे उन्होंने अपने क्षेत्र में लौटने का फैसला लिया था। आज कभी जब सोचता हँप तो लगता है कि रिटायर होने के पहले के कुछ दिनों और अपनी मसूरी में हुई ट्रेनिंग में कितना फर्क था। हालाँकि बहुत लोगों में वही ललक थी- नये सिरे से सब कुछ शुरू करने की। लेकिन, ज़्यादातर लोगों जिनसे मैं बाद के दिनों में भी सम्पर्क में रहा वे और उनके निर्णय किन्हीं और शर्तों पर आधारिँत थे। मेरे लिये भी मेरा यह फैसला इतना सहज न होता अगर संरचना, मेरी पत्नी, विदेश में मेरे बसे बच्चों के साथ रहने की इच्छा के बाद भी मेरे फैसले में मेरे साथ न रहती।
अंजाने शहरों में रहना मेरी आदत बन चुकी थी। पहले पढ़ने के लिये शहर-शहर मैं भटका उसके बाद नौकरी मिलने के बाद तो शहर बदलना जैसे नियति बन गया था। अलग-अलग शहर की अपनी एक पहचान होती है। पूरा शहर जैसे एक खास किस्म के राग या लय में बंधा-सा लगता है- एक सिरे से दूसरे सिरे तक एक ही डोर से बंधा हुआ। प्रशासक होने के नाते आम लोगों के बीच में जाना अक्सर होता था लेकिन उनके जीवन में पैठ उतनी हो नहीं पाती थी कुछ प्रशासकीय व्यवधानों के कारण। लेकिन, समाचार पत्रों, प्रेस, मीडिया और स्थानीय नेताओं के जरिये, कभी उनकी समस्याओं तो कभी उनकी माँगों को लेकर शहर का ऐसा ताना-बुना मेरे सामने आता था जिससे मैं पहचान पाता था कि वह शहर किसी अन्य शहर से कितना भिन्न है या कितना समान।

गुड़गाँव के सेक्टर-१४ में एक फ्लैट में मैं और मेरी पत्नी और साथ में एक पुराना नौकर तीन ही लोग रह गये थे। यहाँ हमें आये हुए अभी तीन महीने ही हुए थे। बड़ा लड़का, अनीश और छोटी लडकी, क्षिप्रा मेरे रिटायरमेंट के समय अपनी छुट्टियों में अमेरिका और आस्ट्रेलिया से भारत आये हुए थे। और उन लोगों के रहते हुए ही हमलोग इस फ्लैट में आ गये थे। वे भी मेरी इस बात से सहमत थे कि दिल्ली के पास होने के साथ-साथ गुड़गाँव में रहना दिल्ली में रहने के बजाय सहज होगा। मेरी अंतिम पोस्टिंग दिल्ली में आज से पाँच साल पहले हुई थी। तभी लोगों ने मुझे दिल्ली में बस जाने के सुझाव दिये थे लेकिन मैं अपने उस निर्णय को अंत समय तक टालता रहा। यह नहीं कि दिल्ली में किसी प्रकार की असुविधा होती, लेकिन जैसा कि मैंने पहले बताया कि मैं अपनी नौकरी के दिनों की छाँह अपने रिटायरमेंट के दिनों पर नहीं पड़ने देना चाहता था।

जल्दी ही मुझे महसूस होने लगा कि रिटायरमेंट के बाद के जीवन में एक अजीब-सा खालीपन आ जाता है। खासकर जब कि मेरी नौकरी में पहले इतनी व्यस्ततायें थी कि कई बार दिन-महीने और साल का पता भी नहीं लगता था। ऑफिस के बाहर आम लोगों की भीड़ और भीतर फाईलों, आफ़िसरों, फोन और योजनाओं और उनकी पेचिदगियों के मध्य कभी पता न चला कि नौकरी के पैंतीस वर्ष कैसे बीत गये।

मेरी नींद सुबह जल्दी ही खुल जाती तो देखता कि संरचना पहले से उठ बैठी है। पैरों के जोड़ों में दर्द होने के बाद भी उसे बिस्तर पर ज़्यादा देर तक रहा नहीं जाता। खिड़की के परदे हटाकर देखता तो अंधेरा अभी छँटा भी न होता। मैं उठकर बाहर घर के पीछे के लॉन में चला जाता। सुबह की ठंडी हवा चेहरे पर तैरने लगती तो रात भर एयरकंडीशनर की हवा से शुष्क हुई त्वचा पर जैसे लगता कि कोई मरहम लगा रहा हो। मैं थोड़ी देर वहीं अप्रील की रात के नीचे बैठा रहता। आसमान में तारे छितरे जान पड़ते, बादलों की हस्ती कुछ धब्बों से ज़्यादा नहीं जान पड़ती। कहीं दूर किसी इक्के-दुक्के गाड़ियों के चलने की आवाज या किसी कुत्ते के भौंकने के सिवा सुबह की उस स्तब्ध नीरता में कोई अतिरिक्त हलचल नहीं होती। संरचना पीछे से आकर मेरे बगल में बैठ जाती। हम कितनी देर तक वहाँ बैठे रहते चुप-चाप। हमारी बातचीत के दायरे में अब बच्चों के कुशल-क्षेम के सिवा कुछ और न आ पाता। उनके फोन भी हर दूसरे दिन आ जाया करते थे इसलिये उनके लिये शुरू में होने वाली चिंता भी अब धीरे-धीरे तिरोहित होने लगी थी। ऐसे में बातों का कोई सूत्र हाथ न लगता देख हम में से कोई उठकर टहलने लगता या फिर ऐसी उलझन से ‘साहब चाय बना दूँ क्या?’ मनोहर की पेशकश हमें बचा ले जाती। मनोहर हमारा सबसे पुराना नौकर था जो आज भी हमारे साथ था। साथ से याद आया कि समय की लहरों में साथ की कितनी नौकायें समय से पहले ही तिरोहित हो गयी थीं। उनका हिसाब भी अब सम्भव नहीं था।

बाहर जब सुबह का उजाला फैलने को होता तो मैं तब तक तैयार होकर डायनिंग हॉल की मेज पर चश्मा लगाये अखबार पढ़ने लगता। मनोहर लाकर मेरी छड़ी दे देता तो मुझे लगता सुबह की सैर का समय हो गया है। पीछे से संरचना की कभी खांसने की तो कभी जोड़ों के दर्द की वजह से कराहने जैसी आवाज मेरा देर तक पीछा करती जब मैं अगली मोड़ तक नहीं पहुँच जाता। अप्रील की उस चमकीली सुबह में कंक्रीट की सड़क से उठती गरम धारायें शरीर को कभी-कभी सेंकती हुई-सी लगती। दिल्ली में पंडारा स्थित निवास के पास हरियाली होने के कारण सुबह कभी इतनी गर्मी नहीं लगती थी। लेकिन यहाँ हरियाली का कहीं नामो-निशान न था। हरियाली के नाम पर कुछ झुलसे हुए पेड़ और बाज़ार के पहले गुलमोहर का एक विशालकाय पेड़ ही था। मुझे कई बार लगता था कि गर्मी की तपिश में जहाँ सारे पेड़ मुरझा जाते थे वहीं गुलमोहर का पेड़ खिला-खिला सा रहता था। मैं चलते-चलते एक पल के लिये ठिठक कर गुलमोर के उस ढीठ पेड़ को देखता रहता। उसके हरे पत्ते के झुरमुट के बीच लाल-लाल फूल दल और दिमाग को बड़े सुकन देते थे।

पार्क जैसे-जैसे पास आता, वहाँ टहलने वालों की जानी-पहचानी सूरतें दिखायी देने लगतीं। अभी मेरी किसी से जान-पहचान नहीं थी इसलिये कुछ लोगों से मुस्कुरा भर लेने का ही नाता था। पार्क के गेट पर पहुँचते ही हवा के ठंडे झोंकों का रेला सा उठता। अन्दर पहुँचते ही तापमान में तीव्र गिरावट लक्षित हो जाती। मैं पार्क के दो-तीन चक्कर लगाने के बाद वहीं पास की बेंच पर देर तक बैठा रहता। कई लोग आते-जाते। कुछ दौड़ते थे तो कई लोग तेज़ कदमों से चलते थे पार्क के किनारे बनी पतली सड़क पर। कुछ लोग इतने धीमे टहलते कि लगता कि बस रस्म अदा कर रहे हों। मैं अपना ध्यान उनसे हटाकर अपने लिपटे हुए अखबार को खोल कर पढ़ने लगता। फिर तो मुझे ख्याल भी न रहता कि आस-पास क्या हो रहा है।

उस दिन सुबह मैं रोज की तरह पार्क के तीन चक्कर लगाने के बाद अखबार पढ़ रहा था कि कोई मेरी बेंच पर आकर मेरे बगल में बैठा था। मैंने ध्यान नहीं दिया होता अगर उन्होंने मुझसे अखबार माँगकर पढ़ने का अनुरोध न किया होता। मैं तब तक अखबार एक बार पढ़ने के बाद दोहरा रहा था इसलिये मैंने अपना पूरा अखबार सम्भालने के बाद उन्हें दे दिया। वे बहुत कम समय तक अखबार को देखते रहे, पढ़ने का उपक्रम करते लगे थे मुझे लेकिन मैं तब तक आने-जाने वालों को देखने लगा था। जल्दी ही उन्होंने अखबार को हम दोनों के बीच रखने के बाद कहा कुछ, ऐसा लगता था जैसे अखबार को साक्षी बनाकर वे कुछ कहना चाहते थे।

‘आपको पहले कभी देखा नहीं यहाँ, सेक्टर में आप नये आये हैं क्या?’

मैं मुड़ा था उनकी तरफ और उनका प्रश्नब मेरी चेतना से टकरा भर गया था, ‘माफ कीजियेगा, मैंने सुना नहीं। आपने कुछ पूछा था?‘

वे थोड़ी देर तक मुझे देखते रहे मानो तौल रहे हों कि वह प्रश्ने क्या फिर से पूछना ठीक होगा।

‘आप क्या यहाँ नये आये हैं?’
‘जी हाँ, मैं तीन महीने पहले ही इस सेक्टर में आया।’ मैंने कहा था। वह थोड़े उद्‌भ्रांत से लगते थे। दाढ़ी खिचड़ी थी और कुर्ता पायजामा पहने हुए थे। उम्र कोई पैंसठ-सत्तर साल रही होगी।
‘इसके पहले आप कहाँ....’ प्रश्ने पूरा करने से पहले उन्हें कुछ याद आ गया या कुछ और सोचने लगे लेकिन वह प्रश्नन देर तक हमारे और उनके बीच झूलता देख मैंने ही पहल की,
‘मैं इसके पहले दिल्ली में था।’ लेकिन वे अखबार के पन्नों को पलटते रहे जैसा अक्सर बातचीत के क्रम में सोचने के दौरान होता है। मैंने ज़ारी रखते हुए कहा, ‘आप तो काफी समय से होंगे इस शहर में?’
‘काफी समय....’ एक प्रश्नन उनके चेहरे पर तैर गया था, वे सोचते रहे लेकिन किसी नतीजे पर पहुँचते नहीं लगे तो मैंने कहा,
‘समय बहुत तेज़ी से गुज़र जाता है। और, हमें कई बार याद रखना मुश्किल हो जाता है कि कोई बात कब हुई थी।’ मैंने एक उच्छवास के साथ कहा।
उनकी आँखों में कुछ चमका था। वे मेरे पास थोड़े और खिसक आये। अखबार वहीं बेंच के किनारे रख छोड़ा था जो रह-रह कर फड़फड़ा उठता था।
‘आपको मैं बताऊँ तो मैं जालंधर का रहने वाला हूँ। यहाँ आये हुई कितने साल हुए मुझे ठीक से याद नहीं।’ फिर थोड़ा रुकते हुए बोले, ‘लेकिन मैंने स्कूल तक की पढ़ाई जालंधर में पूरी की थी। मुझे पढ़ने का बहुत शौक था।’ उनके स्वर में वही ललक थी जो अक्सर बढ़ते बच्चों में पायी जाती है जब उनसे कभी अपने कौशल के बारे में पूछा जाता है।
‘...और मैंने बहुत पढ़ाई भी की। मुझे नहीं पता कि आपने पढ़ाई कितनी की और आप क्या करते हैं लेकिन पढ़ना मेरे लिये ज़रूरत और शौक दोनों ही था।’

वह जब साँस लेने के लिये रुके तो मैंने कहा, ‘जी, अभी-अभी मैं रिटायर हुआ हूँ।’ वे मुझे देखते रहे, हल्की मुस्कान उनके होठों पर उतर आयी थी जो पपड़ायें होठों पर पूरी तरह फैल न सकी। फिर मेरे बोलने से पहले ही बोल उठे,

‘बाद में मैं दिल्ली यूनिवर्सिटी से अर्थशास्त्र में पी.एच.डी की डीग्री हासिल की।’ थोड़ा रुकने के बाद फिर बोलना शुरू किया, ‘उसके बाद मैंने वहीं पढ़ाना भी शुरू कर दिया था। बाद के दिनों में मैने जामिया मिलया इस्लामिया ...’ फिर अचानाक रुक गये, ‘आपने इस यूनिवर्सिटी के बारे में सुना होगा ‘ यह कहने के बाद भी वे मेरी तरफ देखते रहे जैसे प्रतीक्षा मेरे ‘हाँ ‘करने की कर रहे हों।

‘हाँ-हाँ यह तो बहुत ही चर्चित शिक्षा संस्थानों में से एक है।’ मैंने उन्हें आश्वास्त करते हुए कहा।
’वो सब तो ठीक है। लेकिन आज कल सब कुछ बदल रहा है। न तो अब वो पढ़ाने के तरीके रहे, पढ़ाने वाले रहे और न पढ़ने वाले।’ वे अचानक असंतुष्ट-से दीखे। हालाँकि यह उस प्रकार का असंतोष न था जो अक्सर ऑफिस या दोस्तों की महफिल में आम चर्चाओं के बीच उतर आता है। कहीं यह बात उनके दिल में लम्बे से कचोटती रही हो, ऐसा उनकी बातों से लगा। जब वे चुप हो गये तो मैंने कहा,
‘यह आप सही कह रहे हैं। लेकिन इसको इस अर्थ में भी लिया जा सकता है कि सभी कुछ परिवतर्नशील है। जो और जैसा पहले था वो अब नहीं हो सकता और जो अब और जैसा है वह आने वाले कल में भी वैसा नहीं रहेगा।’ मैंने कोई अलग और नयी बात नहीं कही थी और मुझे यह मालूम था लेकिन वे सहमत होते नहीं लगे।
‘खैर, मैं नहीं मानता कि हर बदलाव को हम स्वाभाविक मान लें। कुछ परिवर्तन एक खतरनाक षडयंत्र की तरह आता है या लाया जाता है। यह एक ऐसे धीमे ज़हर की तरह है कि हम मृत्यु की तरफ तो बढ़ते हैं लेकिन उसे हम विकास का नाम देते चलते हैं। क्या विकास सिर्फ समय के गुजरने के स्केल पर ही मापा जाना चाहिये?’ बोलते हुए उनके होठ थोड़े काँपने लगे तो उन्होंने उसे जीभ से तर कर लिया था। यह ऐसा विषय था जिसके बारे में एकदम से अपना मत दे पाना मुझे असम्भव जान पड़ा। मैं उनकी तरफ देखता रहा। मुझे निरूत्तर देख उन्होंने बातों का सिलसिला मोड़ दिया।
‘खैर, तो मैं यह बता रहा था कि मैंने जामिया मीलिया में कुछ वषों तक पढ़ाया। मैं पढ़ाने के साथ-साथ रिसर्च भी करता था। मैंने अपने रिसर्च के आधार पर दो पुस्कें भी लिखीं, ‘लाभ का मनोवैज्ञानिक पक्ष’, ‘व्यक्ति, समाज और स्वार्थ’। इसके अलावा मेरे बहुत से पेपर्स भी प्रकाशित हुए। कभी आप मेरे यहाँ आये तो मैं आपको दिखाऊँगा।’ कहकर वह मुस्कुराने लगे थे जैसे कि हम बचपन में अपने दोस्तों को अपने नायाब खिलौने के बारे में कुछ बता कर तो कुछ छुपा कर उन्हें ललचाना चाहते हैं।
‘लेकिन, मैं विकास के एक पक्ष से सहमत नहीं हूँ। आज जो हमारे समाज में मूल्यों की गिरावट एक परचून की दुकान से लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर के व्यापार और सौदों में दिखायी देती है वह विकास के एकपक्षीय प्रधानता के कारण ही है। किसी भी तरह सब कुछ भी पा लेने का होड़ ने एक ऐसी दौड़ में आज के व्यक्ति को धकेल दिया है जहाँ वह अगर भीड़ के साथ भाग नहीं सकता तो उसका कुचला जाना निश्चित है। ऐसे ही क्षण मैं उन पुराने मूल्यों की तरफ लौटने लगता हूँ जब कि हर कार्य को करने के पीछे एक बौद्धिक आधार होता था। जहाँ लोगों का कल्याण ही प्रमुख लक्ष्य हुआ करता था। लेकिन अब ऐसा नहीं है।’ वे रुके तो मैंने घड़ी देखी, समय कुछ ज़्यादा न हुआ था लेकिन धूप तेज़ होने के कारण पार्क में लोग कम पड़ते जा रहे थे।
‘यह आप सही कह रहे हैं और भ्रष्टाचार भी उस लाभ का ही एक रूप है।’ मैंने उनके विचारों से सहमत जतायी तो वे हँसने लगे। कुछ कारणों से यह विषय मेरे अंतःकरण में भी एक लम्बे अंतराल से घुमर रहा था।
‘भ्रष्टाचार तो एक मियादी बुखार की तरह है। यह समाज में एक समय तक रहेगा ही जब तक हम उसकी तहों में जाकर उसे दूर नहीं करते। आपको मालूम होना चाहिये कि इन सबके पीछे आदमी का वही स्वार्थ है जिसे उसका एक स्वाभाविक लक्षण माना जाता है। यह एक सच है कि हर व्यक्ति के अन्दर स्वार्थ है। लेकिन उस पर काबू पाने के बजाय उसके अधीन हो जाना कायरता है और दगाबाजी है उनके लिये जिनसे वह जुड़ा है। क्योंकि यही स्वार्थ निकटतम सम्बंधों को भी ढहा देता है। और दुनिया का कोई कानून और विधि-व्यवस्था इसे दूर नहीं कर सकते। कुछ देशों ने तो भ्रष्टाचार को वैधानिक मान्यता भी दे दी है।’ वह उत्तेजना में एक हाथ को दूसरे पर ठोकते हुए सम्भल कर बैठ गये। उनके चेहरे के हर कोण से प्रसन्नता ऐसे छलक रही थी मानों कोई नया सूत्र हाथ लग गया हो, फिर कहने लगे, ‘लेकिन इससे भी निदान पाना सम्भव नहीं है। इसका एक ही उपाय है आदमी द्वारा अपने विवेक का सही प्रयोग। उसे पता होना चाहिये कि उसकी जरूरत से ज्यादा किसी चीज को पाना उसके और उसके परिवेश जिसका कि वह हिस्सा है उनके हित में नहीं। आपको मालूम नहीं इससे कितने ही भूखे और गरीब देशों का कल्याण हो जायेगा।’ वह बोल रहे थे और मैं सुन रहा था। ‘यह भी एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि आदमी के अलावा संसार के किसी भी अन्य प्राणी में संग्रह करने का कोई प्रचलन नहीं है।’

ऐसा नहीं कि मैं सहमत नहीं था उनकी बातों से लेकिन अपने लम्बे समय के प्रशासनिक सेवा के अनुभव के केंद्र में कितनी ही ऐसी बातें मेरे सामने आती थीं जिनका उनके द्वारा की जा रही बातों से गहरा ताल्लुक था इसलिये मैं सुनना चाहता था। बहुत कम लोग होते हैं जो वही कहते हैं जो वे सोचते हैं। उनसे भी कम होते हैं जो वह सब करते हैं जो वे कहते हैं। लेकिन फिर एक प्रकार के विश्वा स में या आस्था में जो सुख है उसे कोरे तर्कों के आधार पर तौला नहीं जा सकता। और शायद वे भी इसी मनोदशा से गुजरे हों या गुजर रहे हों यह मेरा विश्वाधस नहीं तो अनुमान तो ज़रूर था।

वह थोड़ी देर चुप रहे, बन्द अखबार खोल कर देखा, पन्ने पलटते रहे फिर बन्द करके बगल में रख दिया। अब पार्क में इक्के-दुक्के लोग ही रह गये थे। मैंने भी घड़ी देखी और सोचा कि अब जाना चाहिये। मैंने उनकी तरफ देखा तो उनका चेहरा अचानक सफेद पड़ गया। वे बदहवाश से उठ खड़े हुए। इसके पहले कि मेरी समझ में कुछ आये मैंने देखा दो लोग उन्हें जबरन कंधे से पकड़ कर ले जाने लगे। मैं हडबड़ा कर उठ खड़ा हुआ। मेरी कुछ समझ में नहीं आया कि क्या करूँ, कोई आस-पास भी नहीं दीखा जिनको बुला पाता। मैंने देखा जब वे लोगों द्वारा जबर्दस्ती लगभग घसीटे जा रहे थे तो उनकी आँखें मेरी तरफ थीं पर पिछले एक-आध घंटे में बनी उनमें पहचान कहीं भी न थी। था तो सिर्फ एक ऐसा खालीपन जो विस्मृति के कागारों से रिसता है, निरतर, निःशब्द...

वे नज़रों से ओझल भी न हुए कि किसी ने मेरे कंधे को छुआ था।

‘घबराईये नहीं। आप पहले बैठ जाईये। मैं आपको सब बताता हूँ।’

मेरे पैर काँप रहे थे यह मुझे तब पता चला जब मैं बेंच पर दुबारा आ बैठा। वे पहले से बेंच पर बैठे थे और उनकी हँसी लाख रोकने के बाद भी रुकती नहीं थी। जब वे थोड़े संयत हुए तो कहना शुरू किया, ’दरअसल आप नये हैं यहाँ इसलिये आपको कुछ भी नहीं मालूम। आप अभी जिनसे बात कर रहे थे और जिनको अभी जाते देखा है वे मेरे बड़े भाई साहब हैं।’ उनकी बातों को सुनकर मुझे जाने क्यों थोड़ी राहत मिली। लेकिन साथ में आश्चकर्य भी शायद इसलिये कि जिस तरह वह रह-रहकर हँसने लगते थे।
‘ओह, मैं ये जानता न था।’ मैंने अखबार के पन्नों को सहेजते हुए कहा, ‘लेकिन आपके भाई साहब बातें बहुत ते की कहते हैं।’
उन्होंने मेरी तरफ देखा, उनकी आँखों में एक शरारत भरी चमक आ गयी थी।
‘तो उन्होंने आपको भी वे सारी बातें बता दीं?‘
‘वे सारी बातें, मतलब मैं समझा नहीं ‘ मैं समझ नहीं पा रहा था वे आखिर कहना क्या चाहते थे।
‘तो उन्होंने कहा होगा कि वे जामिया मिलिया में पढ़ाते थे। और उन्होंने दो किताबें लिखी हैं। यही न?’
वे कहकर मुझे देखते रहे मानो कुछ रहस्योद्‌घाटन होने वाला हो।
‘हाँ, यही नहीं वे आज के समाज और उसकी सोच पर भी गहरी समझ रखते हैं, ऐसा मुझे लगा।’ मैंने अपनी बात पूरी की नहीं थी कि वे ठठाकर हँस पड़े। मैं हैरान कि इसमें इतना हँसने वाली क्या बात हो सकती है। वे कहने लगे,
‘भाई साहब, वे जामिया मिलिया में क्या पढ़ायेंगे उन्होंने कॉलेज तक का मुँह देखा नहीं। दसवीं कर रहे थे तो हमारे पिताजी लाखों का कारोबार छोड़ कर दुनिया से चल बसे। उसके बाद से ही वे कारोबार में जो आये तो निकल न पाये कभी। हाँ, वे हमेशा अफसोस ज़रूर करते रहे कि अगर किस्मत ने धोखा न दिया होता तो वे ज़रूर पढ़-लिख कर समाज को कुछ दे पाते।’ मुझे उनकी ये बातें एक सदमे से कम चौंकाने वाली नहीं लग रही थीं। एक पल के लिये मैं विश्वा स करने की स्थिति में नहीं था जो मैं देख और सुन रहा था लेकिन तब तक मेरे अन्दर पूरी बात जानने की उत्सुकत भी पैँदा हो गयी थी। वे बताते रहे,
‘लेकिन भाई साहब कारोबार में दुगुनी और रात चौगुनी तरक्की करते रहे। मैं भी उनके साथ-साथ था। लेकिन उनके काम करने के तरीके अलग थे। वे कारोबार में फायदे के सिद्धांत को लेकर हम सब से अलग सोच रखते थे और कारोबार में इमानदारी को सबसे ज़्यादा तरीजह देते थे। इसको लेकर कई बार हमारे साथ के व्यापारियों में कहा-सुनी भी हो जाती थी लेकिन वे अडिग रहते थे। समय गुजरता गया, हमारे परिवार बस गये। उनकी कोई संतान नहीं है। मेरे दो लड़के भी जल्दी-जल्दी ही इस कारोबार में हाथ बँटाने लगे थे। लेकिन बाद के समय में भाई साहब और उनमें मतभेद होने लगे।’ कहने के बाद वे रुके थे। बायें-दायें देखा और फिर कुछ सोचते हुए कहने लगे,
‘बाद में मेरे बेटों ने धोखा देकर उनको अपने कारोबार से बेदखल कर दिया।’ उनकी आवाज पहली बार संजीदा होने लगी थी।
‘तब से लेकर आजतक उनको उनके कमरे में एक तरह से कैद कर रखा है हमारे बेटों ने। धीरे-धीरे उनकी समझ-बूझ जाती रही। और उसके बाद से ही वे एक ऐसी दुनिया और ज़िन्दगी के बारे में लोगों को बताते हैं जिसे शायद वे जीना चाहते थे कभी....’ उनकी आवाज नम होने के साथ-साथ भारी भी हो रही थी। मैंने देखा उनकी तरफ जो अब बगल में देख रहे थे, शायद नज़र मिलाने की एक हिचक या कि कुछ न कर पाने का अपराध-बोध। मुझे कुछ कहते नही सूझ रहा था। तभी वही दो लोग जो पहले आये थे वे अब हमारे आगे आकर खड़े हो गये।
वे उठ खड़े हुए और कहते जा रहे थे, ‘देखो मैं उन्हें नहीं लाया। वे खुद निकलकर आये होंगे।’ लेकिन उन दोनों पर उनकी बातों का कोई असर होता नज़र नहीं आ रहा था और वे इस तरह से खड़े थे जैसे मोर्चे पर सिपाही सावधान मुद्रा में खड़े होते हैं। ये उनके चौकीदार या बॉडीगार्ड जो भी रहे हों लेकिन उनके चेहरे पर कोई भाव न था।
’देखिये, आप अभी चलिये हमारे साथ।’ उन दोनों ने एक ही साथ कहा।

उन्होंने मेरी तरफ एक कातर दृष्टि डाली और उनके साथ-साथ जाने लगे।

मैं अखबार लेकर उठ खड़ा हुआ। दिन की धूप सर पर चमक रही थी। मैं देर तक उन तीनों को पार्क के दरवाजे तक जाते देखता रहा और फिर मैं घर के लिये वापस चल पड़ा।

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