Saturday, November 5, 2011

कहानी संग्रह "गांधीजी खड़े बाज़ार में" की समीक्षा

मेरे दूसरे कहानी संग्रह "गांधीजी खड़े बाज़ार में" की समीक्षा डा. शैलजा सक्सेना जी ने लिखी है जिसे आपसे साझा कर रहा हूँ - अमरेन्द्र कुमार

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"गाँधी जी खड़े बाज़ार में"- अमरेन्द्र कुमार

-डॉ. शैलजा सक्सेना


अमरेन्द्र कुमार का यह दूसरा कहानी संग्रह है। पिछले कहानी संग्रह की तरह ही इस कहानी संग्रह की प्रत्येक कहानी भी लेखक के चिंतनशील, सूक्ष्म-अन्वेषक और विश्लेषणशील व्यक्तित्व और उसकी विशिष्ट शैली को बता रही है।

कहानियों से पहले कहानी विधा पर लेखक का वक्तव्य अत्यंत रोचक है। कहानी विधा की क्रिकेट की गेंदबाज़ी, पहाड़ी रस्ते से गुज़रने और तीर्थयात्रा से तुलना करते हुए लेखक ने कहानी लिखने से पहले और कहानी लिखते समय के अनुभव को बहुत बारीकी से बताया है। इस वर्णन से पता लगता है कि लेखक, कहानी लिख कर ही अपने कर्तव्य की इति श्री नहीं समझता अपितु एक ज़िम्मेदार कहानीकार की तरह कहानी लिखने\पढ़्ने वालों से कहानी लिखने की कला संबंधित अपने विचार भी साँझा करता है।

इस कहानी संग्रह में आठ कहानियाँ हैं। इस संग्रह की प्रारंभिक चार कहानियाँ और अंतिम कहानी आत्मपुरुष शैली में कही गई है। लेखक या तो घटना को देख रहा है (गाँधी जी खड़े बाज़ार में) या वह कहानी में एक अन्य चरित्र की तरह है (तलाश, एक दिन सुबह) या वह अपनी ही कहानी कह रहा है (पहला सबक, एक अरसे के बाद), शेष तीन कहानियाँ अन्य पात्रों के माध्यम से कही गई हैं। लेखक वहाँ "मैं" के रूप में उपस्थित नहीं है। जब कहानी आत्मपुरुष की शैली में कही जाती है तो कहानी में एक अलग तरह की विश्वसनीयता पैदा होती है, कहानी से लेखक का भावात्मक लगाव दिखाई देता है और जब कहानी "मैं" के जीवन को बता रही हो तो उसमें आत्मिक विस्तार के कई आयाम सहज ही उभरते दिखाई देते हैं, साथ ही कई बार यह डर भी होता है कि लेखक का व्यक्तित्व पात्रों पर हावी न हो जाये पर अमरेंद्र की इन कहानियों की विशिष्टता यह है कि लेखक इन कहानियों की घटनाओं या पात्रों का नियंत्रक नहीं है, घटनायें उसके चाहे-अनचाहे ही हो रही हैं और पात्र उसके अनुसार व्यवहार करते हैं। इन घटनाओं के प्रति वह कोई चौंकाने वाली प्रतिक्रिया भी प्रकट नहीं करता केवल इन घटनाओं को विस्तार से खोल कर हमारे सामने रख देता है। घटनाओं का विस्तार, उनका बारीकी से अंकन, उनका सहज विश्लेषण और इन सबके बीच सहज गुँथा लेखक का व्यक्तित्व, यही इन कहानियों की विशेषता है।

प्रारंभिक चार कहानियाँ अलग-अलग विषय वस्तु लिये हैं, हाँ इनमें से दो कहानियाँ नौकरी पाने के आसपास ज़रूर घूमती हैं पर इन कहानियों को एक साथ पढ़्ते जाने से एक अलग ही चरित्र उभरता है, यह लेखक का अपना चरित्र है, मुझे ऐसा लगता है। लेखक एक सूक्ष्म द्र्ष्टा, असीम धैर्य वाला (पहला सबक), कुछ-कुछ दार्शनिक और अपने विषय में बहुत ईमानदार व्यक्ति है। उसकी टिप्पणियाँ, जो प्राय: घटनाओं के कपड़े पर कसीदे के रूप में उभरती हैं, बहुत स्पष्ट, कम शब्दों में बहुत कुछ कहने वाली और ईमानदार होती हैं चाहें ये टिप्पणियाँ उसके अपने विषय में हों या किसी घटना पर या वस्तुस्थिति पर हों। ये टिप्पणियाँ एक वातावरण उपस्थित करती हैं। एक ह्ल्की दार्शनिकता के कुहरे में घटनायें ढ़की रहती हैं, घटनाओं का प्रवाह मंथर गति से चलता रहता है और पाठक के साथ-साथ लेखक भी उसमें बहता हुआ दिखाई देता है। ऐसी स्थिति में लेखक एक कमेंट्रेटर (आँखो देखा हाल कहने वाले) के रूप मे अधिक उभरता है, कहानियों के नियंत्रक के रूप में कम। "तलाश" जैसी कहानी में भी घटनाओं का प्रवाह ही कहानी को निर्धारित कर रहा है, लेखक का स्वयं उन घटनाओं पर नियंत्रण नहीं है पर इन घटनाओं के बीच वह एक दृढ़ प्रतिज्ञ के रूप मे उभरता है। कहानियों के पात्रों की खूबी इन घटनाओं की प्रतिकूलता में भी आगे बढ़ते रहने का साहस दिखाने में है, घटनाओं के नियंत्रण का प्रयास करने में नहीं। यहाँ वह नियतिवादी सा दिखाई पड़ सकता है पर वह नियतिवादी है नहीं। घटनाओं को बदला नहीं जा सकता पर उन घटनाओं के प्रति जो हमारी प्रतिक्रिया है, उस पर हमारा नियंत्रण है, इस सत्य को इन कहानियों के नायक जानते है इसलिये "तलाश” में दिनभर धूप में खड़े रहने के बाद भी न तीव्र झल्लाहट है, न "पहला सबक" में पैसे चोरी हो जाने पर क्रोध, न बीच रास्ते, अनजाने शहर में स्कूटर ख्रराब हो जाने पर बौखलाहट। केवल "पहला सबक" के प्रारंभ में नौकरी की परीक्षा का स्वीकृति पत्र न आने पर चिंता दिखाई देती है। चारों कहानियों में हमें किसी भी स्थिति पर पात्रों की कोई प्रतिक्रिया फट कर होती नहीं दिखाई देती है, इसी लिये सब कुछ एक दार्शनिक सोच, एक मध्यवर्गीय गंभीरता (जो आर्थिक सीमाओं और पारिवारिक मूल्यों के बीच से पैदा होती है) और एक समझदार धैर्य के कुहरे में घटता दिखाई देता है।

कहानी संग्रह की प्रथम कहानी इस पुस्तक की शीर्षक कहानी है: "गाँधी जी खड़े बाज़ार में"। सच कहूँ तो यहाँ "जी" शब्द का होना भी अपने आप में एक सुखद आश्चर्य है। जहाँ आज के लोग अपने रिश्तेदारों को आदर से बुलाना अपना अपमान समझते हैं, जहाँ गाँधीवादी विचारधारा के आलोचकों से "काँग्रेसी" का बिल्ला लगाये जाने का डर होता है वहाँ सहज भाव से, अपने से बड़ों को "जी" लगा कर बात करने की मानसिकता के चलते अमरेंद्र ने अपनी इस कहानी और कहानी संग्रह के शीर्षक में जी लगा दिया है। इस कहानी में व्यंग्य भी यही है कि गाँधीजी अब प्रदर्शन और पैसे कमाने का एक साधन हैं, आदर और श्रद्दा का नहीं। एक वृद्द आदमी को गाँधीजी की वेश-भूषा में दुकान के बाहर खड़ा कर के दुकानवाला गाँधी जयंती के दिन अपनी आमदनी बढ़ा रहा है, लोग देखते हैं, मुस्कुरा कर आगे बढ़ जाते हैं, वह वृद्द अपनी टेढ़ी कमर को सीधा करने का अधिकार नहीं रखता, गर्मी में पसीना बहाते हुए, बिना पानी पिये वह धूप में खड़ा रहता है, ज़रा सा हिलने पर उसे मैनेजर से और दुकान के बेयरे से डाँट खानी पड़्ती है और इस तरह गाँधी के नाम पर यह अमानवीय काम होता है। कहानी का व्यंग्य और भी तीखा तब हो जाता है जब एक महिला अपने बच्चे को डाँटते हुए "गाँधी" बने वृद्ध से दूर ले जाती है कि अजनबियों से बात नहीं करते, वह बच्चा कहता भी है कि यह तो गाँधीजी हैं पर माँ कहती है कि "तुम्हें कैसे मालूम?" यह बातचीत अँग्रेज़ी में होती है। हिन्दी भाषी बापू के जन्मदिन पर इस बात से बड़ा व्यंग्य क्या होगा कि ना उन के प्रति लोगों में श्रद्दा है, न ही लोगों को उन की पहचान है और न ही उनकी मान्यताओं और मूल्यों का कोई महत्व है। आज के ज़माने में बापू की स्थिति और बाज़ारवाद पर तीखा व्यंग्य करने में अमरेंद्र को इस कहानी में पूरी सफलता मिली है।

"एक दिन सुबह" कहानी का कथानक रुचिकर है। यह कहानी सुबह के कुछ घंटों की है। इसकी विस्तॄत पृष्ठभूमि दी गई है। लेखक के पात्र "मैं" ने विस्तार से रिटायरमेंट के बाद रहने की जगह को लेकर अपनी पसंद, नापसंद का वर्णन किया है जिसका मुख्य कहानी से कोई विशेष संबंध नहीं है। इस लंबी भूमिका में बात केवल इतनी है कि "मैं" उस शहर में नया है। कहानी का मुख्य पात्र वह व्यक्ति है जो पार्क में टहलने आये "मैं" से समाज की स्वार्थ और लाभ प्रवृति पर बहुत सी बातें करता है। वह बताता है कि वह जामियामिलिया यूनिवर्सिटी में पढ़ाता है। इतनी रोचक और समाज के गहरी अन्वेषक चर्चा की समाप्ति इस जानकारी के साथ होती है कि वे सारी बातें उस व्यक्ति के अवचेतन में दबी बातें थीं, सत्य यह था कि वह व्यक्ति मैट्रिक तक पास था और एक व्यापारी रह चुका था। व्यापार हथियाने के लिये उस व्यक्ति के भतीजों ने उसे नज़रबंद कर रखा था। कहानी अच्छी तरह लिखी हुई है अत: कौतुहल अंत तक बना रहता है और उसकी समाप्ति आधुनिक जीवन के मर्मस्पर्शी सत्य में होती है। यह कहानी आज के समाज में बढ़ते स्वार्थ और धन के लिये किसी भी सीमा तक गिर जाने के तथ्य को स्पष्ट करती है। कहानी में यह दिखाना कि अवचेतन में दबी इच्छायें कितनी सत्य प्रतीत हो सकती हैं, एक नयापन पैदा करता है, दूसरा विचार यह रखा गया है कि मैट्रिक पास व्यक्ति भी अपनी मान्यताओं और विचारों की प्रगतिशीलता के चलते पढ़े-लिखे स्वार्थी लोगों से बेहतर सिद्द हो सकता है।

तीसरी कहानी "तलाश" एक चित्र है-विभिन्न व्यावसायिक परीक्षाओं में आवेदन भेजने के लिये पोस्ट आफिस में लगी लंबी लाइनों का। दोपहर की चिलचिलाती धूप में पसीना बहाते बहुत से नौजवान अपने भविष्य की तलाश में वहाँ खड़े हैं, लाइनों में अजनबियों से भी दोस्ती हो रही है, पास की छोटी दुकान से लड़्का सबके लिये भाग-भाग कर चाय ला रहा है। ऐसे में कम्प्यूटर ख्रराब होना और फिर क्लर्क का घोषणा करना कि सबका काम आज ही होगा, से उपजी तसल्ली आदि दृश्य और भाव कहानी में बहुत बारीकी से प्रस्तुत किये गये हैं। कहानी के अंत में वृद्द से बातचीत, अपनी लड़की और लड़के के लिये उनकी चिन्ता कहानी को अलग ही मर्मस्पर्शी मोड़ दे देती है। यह कहानी एक बार फिर दिखाती है कि कहानी के मुख्य पात्र "मैं" का धैर्यशाली चरित्र लेखक का अपना चरित्र ही है। इस कहानी का चित्र आम होने के बाद भी अपनी सादगी और बारीकी के कारण मन पर प्रभाव छोड़्ता है। कथावस्तु रोज़मर्रा के दृश्य को दिखाते हुए भी अपने प्रस्तुतिकरण के कारण नवीन है।

कहानी "पहला सबक" में घटना क्रम है: नौकरी के लिये परीक्षा के स्वीकृति पत्र की प्रतीक्षा, परीक्षा के लिये यात्रा, नौकरी का पाना और नौकरी पर पहुँचने की यात्रा और पहुँचने पर उस नौकरी की सत्यता को जानना। इस घटनाक्रम में कोई नवीनता नहीं है। हमारे देश के लाखॊं, करोडों युवा इस त्रासद अनुभव से गुज़रते हैं और अनेकों कहानियाँ नौकरी पाने के अनेकों त्रासद अनुभवों पर लिखी भी जा चुकी हैं, इस के बाद भी अमरेंद्र की यह कहानी नई है, बहुत प्रभावोत्पादक है।

यह कहानी आम से घटनाक्रम में अनेक विशिष्टताएँ लिये हुए है। पहली विशिष्टता यह कि इस एक कहानी में अमरेंद्र वस्तुत: तीन कहानियाँ कह रहे हैं और वह भी इतनी अच्छी तरह कह रहें हैं कि ये कहानियाँ बिखरी हुई नहीं लगतीं, अपितु एक के बाद दूसरी कहानी का आना स्वभाविक लगता है। यह पाठक की उत्सुकता को एक यात्रा कराता हुआ सा लगता है। दूसरी विशिष्टता है कि सामान्य से घटनाक्रमों का बहुत बारीकी और विस्तार के साथ वर्णन किया गया है, इन विस्तृत वर्णन से जगहों और घटनाओं का जीवंत बिंब बना है, कहानी के भौगोलिक सत्य यानि जगहों का, परिवहन के माध्यमों का वर्णन अपनी जीवंतता के कारण बहुत सशक्त बिंब पैदा करता है, पाठक को विश्वास हो जाता है कि लेखक स्वानुभूत सत्य लिख रहा है, जैसे ये चित्र उसकी मानसिक एलबम से निकल कर पन्नों पर आ विराजे हों और इन चित्रों को वह उतनी ही सघनता और तीव्रता के साथ पुन: जी रहा हो जैसे उसने पहली बार वे घटनाएँ भोगी होंगी। घटनाओं और अनुभूतियों के साथ लेखक की यह प्रगाढ़ता न केवल इस कहानी को अपितु इस संग्रह की सारी कहानियों को अधिक जीवंत और विश्वसनीय बनाती है। अमरेन्द्र की इस कहानी की तीसरी विशेषता है कि यह कहानी घटनाओं के बीच घुस कर उनका विश्लेषण साथ साथ ही करती चलती है और लेखक इन स्थितियों पर टिप्प्णी भी देता चलता है। उदाहरण के लिये:" मैंने तो औटोरिक्शा की समस्या के बारे में पूछा तक नहीं। मुझॆ पता था कि बिना किसी समस्या के वे गाड़ी रोकते भी क्यों, और अगर मैं समस्या जान भी लेता तो मैं कुछ मदद भी तो नहीं कर सकता था। पर सब लोग मेरे जैसे नहीं होते। कुछ लोग औटोरिक्शा के आगे और नीचे मुआयना करने के अंदाज़ में ऐसे ताक-झाँक कर रहे थे जैसे अभी समस्या का पता कर निदान निकाल लेंगे।" इन तीन वाक्यों में कहानी का घटनाक्रम भी आगे बढ़ा, कहानी के नायक के चरित्र के बारे में भी पता लगा कि वह कितना धैर्यशाली है और तीसरा सामान्य जन-प्रवृति के बारे में सटीक टिप्पणी भी मिलती है, ऐसी अनेक टिप्प्णियाँ हमें इस पूरी कहानी में मिलती हैं। कहानी का अंत भी अपने आप में विशिष्ट है- अनेकों कठिनाइयों के बाद, अपना जीवट दिखाते हुए, नौकरी पर समय से रिपोर्ट करने की दॄढ़ता के साथ आगे बढ़ने वाले युवक को अपना भविष्य काले-काले जालों के बीच दिखाई देता है जिन्हें बरसों से साफ नहीं किया गया है। कहानी का यहीं अंत हो जाता है और लेखक शेष कहानी पाठकों की कल्पना पर छोड़ देता है कि इस नायक ने वर्षों से साफ नहीं हुए इन जालों को साफ किया होगा या नहीं। वर्षों से उस कमरे की सफाई न होना एक प्रतीक भी है कि वर्षों से उस नौकरी को एक पुराने ढ़ाँचे में ही देखा जाता रहा है। गाँव के मुखिया और गाँव के बीच इस नौकरी की "प्लेसिंग" गलत तरीके से होती आई है जिसे किसी ने वर्षों से सुधारा नही है, प्रश्न यह भी उठता है कि क्या नायक ऐसा करेगा? पर कहानी इस प्रश्न का उत्तर देने के लिये नहीं लिखी गई है। कहानी का उद्देश्य " खोदा पहाड़ निकली चुहिया" की स्थिति को दिखाना जैसा है जहाँ पहाड़ खोद्ने की कठिनाइयों का विस्तृत वर्णन चुहिया की प्राप्ति की आयरनी (विडंबना) को बहुत तीखा कर देता है। अमरेंद्र इस विडंबना और व्यंग्य को सफलता से प्रस्तुत कर सके हैं।

पुस्तक की अंतिम कहानी "एक अरसे के बाद" में भावना का घनीभूत रूप सामने आता है। इस कहानी में जहाँ एक ओर अमरीका से घर वापस लौटने पर बिना माता-पिता का घर कठिन यथार्थ बन कर सामने खड़ा होता है वहीं उनकी यादें, घर लौटने पर वे क्या करते थे आदि बातें एक चुप्पी भरी मार्मिकता कहानी में पैदा करती हैं। ईश्वर के बालस्वरूप को "लल्ला" के रूप में अपनाने और उसी भाव से हर जगह अपने साथ रखने वाले परिवार के प्रति नवीन कौतुहल पैदा होता है। ईश्वर के प्रति ईमानदार लगाव, भाव आजकल की कहानियों में नहीं दिखाई देता फिर किसी तरुण परिवार के ईश्वर की बालमूर्ति को "लल्ला" के रूप में अपनाने की बात तो अचरज भरी ही मालूम देती है। पर यह अचरज भी अमरेंद्र की अन्य कहानियों कि तरह सहज भाव से आया है, चमत्कार बन कर नहीं। इस कहानी में हवाईअड्डे से घर तक टैक्सी में की गई यात्रा में जो वातावरण लेखक ने सृजित किया है, वह इस कहानी का प्राण है और इसे सजीव बनाता है।

शेष तीन कहानियाँ उपरोक्त कहानियों से अलग स्वर लिये हैं। यहाँ लेखक अपनी कहानी नहीं कह रहा है और न ही वह किसी भी रूप में कहानी में है। कहानियों के चरित्र अलग-अलग परिवेश से हैं जैसे" मोती बनाम मुक्तेश्वर" का नायक कुत्ता है, "आने वाले कल के लिये" की कहानी उस तरुण युवती की है जो माता-पिता के संबंधों के विघटन को भावनात्मक स्तर पर झेल रही है और पिता के पास जाने और माँ के पास रहने के निर्णय के बीच झूलती दिखाई देती है।

"आने वाले कल के लिये" कहानी का कथानक बहुत बड़ा नहीं है। देखा जाए तो कहानी केवल इतनी है कि नायिका के पिता, जो कि बहुत प्रसिद्द अभिनेता हैं, उसके शहर, उसके कालेज के वार्षिक समारोह में आने वाले हैं और वह अपने पिता से बहुत दिनों के बाद मिलने की उत्सुकता, आशंका, बैचेनी के बीच उस समारोह के लिये अपने नाटक को तैयार करती है। अपने पिता को वह अपनी नानी और माँ से भी मिलाती है। पिता के अपने पास आकर रहने के निमंत्रण को वह इस गिल्ट के कारण नहीं स्वीकार कर पाती कि माँ और नानी अकेले रह जायेंगे यद्दपि उसका मन पिता के पास जाने को बहुत उत्सुक है और अंत में पिता के बीमार हो जाने पर उस परिवार का पुन: मिलन हो जाता है। कहानी में ऐसा कोई पेंच नहीं है जो उसे चामत्कारिक बनाता हो, कोई ऐसी घटना नहीं जो कथापट को अनोखा बनाती हो पर पूरी कहानी में युवती की मनोभावनायें बहुत बारीकी से उभारी गईं हैं। पिता से मिलने के पूर्व, पिता के मिलने के समय और पिता के मिलने के बाद पारुल और पारुल की माँ के मन में, उन के परिवार के वातावरण में जो कुछ घटता है वह ही कहानी का मुख्य कथानक है। लेखक यह भी बताना चाहता है कि चाहें कोई व्यक्ति प्रसिद्ध हो, उम्र में बड़ा हो गया हो पर परिवार के अधूरेपन का दर्द सभी को सालता है। कहानी कुछ अधिक लंबी हो गई है और इसका कारण है कि कहानी धीमी चाल से चली है। पारुल के पुरुष मित्र का प्रसंग उसके चरित्र को बताने के लिये किया गया है या संभवत उसके माँ-पिता के विवाह पूर्व इतिहास को दोहराने जैसी स्थिति में नयी पीढ़ी की नयी प्रतिक्रिया की बात दिखाने के लिये किया गया है, परन्तु "उत्कर्ष" के चरित्र को उभरने के लिये बहुत अधिक जगह और अवकाश नहीं मिला है। जगह और समय का एक बड़ा हिस्सा वातावरण के नाम हो गया है। इस कहानी में अमरेंद्र की लेखन शैली निर्मल वर्मा की याद दिलाती है।

"कुछ सोचा है" कहानी एक नाटक की तरह है। कहानी का उद्देश्य नई पीढ़ी के व्यवहार का पुरानी पीढ़ी के व्यवहार साथ तुलनात्मक चित्र प्रस्तुत करना है। यह चित्र एक परिवार के वार्तालाप के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। साथ ही यह भी बताया गया है कि उपलब्धियाँ व्यक्तित्व की पहचान बन जाती हैं और आज के समाज में यह पहचान ही बड़ी चीज़ है। इसे कहानी का तरुण नहीं समझता। यह कहानी शेष कहानियों से भिन्न है क्यों कि यह इस संग्रह की पहली कहानी है जिस में बात कहने के लिये वातावरण का बहुत अधिक सहारा नहीं लिया गया है केवल कहानी के अंत से पहले चाँद और अँधेरा पात्रों की आशा और निराशा का वातावरण प्रस्तुत करता है। कहानी के पात्र वर्तमान समाज में पढा़ई, नौकरी, पैसों, ओहदे को ले कर होने वाली प्रतियोगिता और चिन्ता पर चर्चा करते हैं। कहानी के नायक, जज साहब के तरुण पुत्र का इन सब के प्रति लापरवाही दिखाना सामाजिक मूल्यों को खारिज करने जैसा लगता है। यह बात तब और पुष्ट हो जाती है जब कहानी के अंत में रौशनी आ जाने के बार सब लोग देखते हैं कि वह पुस्तक से मुँह ढँक कर सो रहा है। यहाँ नई पीढ़ी के युवक की मन:स्थिति को दिखाया गया है कि उस के भविष्य के प्रति उसके माता-पिता और परिवार को उसकी तुलना में अधिक चिन्ता है। किशोर दो बार स्टेट एंट्रेस में फेल होने पर भी बहन के साथ झगड़ने में अधिक आनंद उठा रहा है जबकि वहाँ उसके भविष्य को लेकर पिता और उसके भाई चिन्तित हो रहे हैं। पिता के इस आग्रह पर, कि कोई पुत्र किशोर को अपने साथ ले जाये और अपने शहर में पढ़ाये, कोई तैयार नहीं होता। एक बात अवश्य ध्यान देने की है कि लेखक किशोर के माध्यम से समस्त नई पीढ़ी पर कोई वक्तव्य नहीं दे रहा है। नई पीढ़ी को आलसी या लापरवाह कहने का उसका कोई मंतव्य नहीं है क्यों कि इसी नई पीढ़ी की किशोर की बहन और भाई हैं जो पढ़ाई में अच्छे हैं और अपने अच्छे भविष्य के लिये संभव प्रयास कर रहे हैं। कहानी की नाटकीय प्रस्तुति प्रभावपूर्ण है।

"मोती बनाम मुक्तेश्वर" कहानी की कथा अलग प्रकार की है। यह एक ऐसे कुते की कहानी है जो मंदिर के बाहर बैठा-बैठा ही भक्त हो गया है। पुजारी द्वारा बहुत छोटेपन में ही बचा लिये जाने और पुजारी द्वारा ही पाले जाने के कारण मोती अन्य कुत्तों से भिन्न व्यवहार करता है। वह शाकाहारी है, आरती और भजन के समय मंदिर में बैठना चाहता है, गंगा में स्नान करता है और तो और वह पुजारी के समान ही व्रत आदि भी करता है। एक योगी के आकर यह घोषणा करने के बाद कि मोती पूर्व जन्म का शापित योगी है, मोती की प्रसिद्धि इतनी बढ़ जाती है कि दुनिया भर के लोग और पत्रकार आकर उसको देखने लगते हैं और उसके चित्र लेने लगते हैं। बहुत ही आश्चर्य तब होता है कि मोती इस कोलाहल में भी शाँत बैठा रहता है। यह कहानी धार्मिक कहानी सी अधिक लगती है पर लेखक के पिछले संग्रह की एक कहानी पर अगर ध्यान दें तो याद आयेगा कि वहाँ कहानी में चिडि़या मुख्य पात्र थी और मनुष्य के समान ही संवेदनशील थी और यहाँ मोती का धार्मिक प्रवृति का होना यह बताता है कि लेखक की संवेदनशीलता ने पशु और पक्षियों को भी समझदार और संवेदनशील माना है। इस कहानी में न कुत्ते को धार्मिक मान लेने पर व्यंग्य है, न कुत्ते को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाने की चेष्टा है। ऐसा लगता है कि कहीं एक घटना घटी, लेखक को इस के बारे में पता चला और उसने गहराई से इस पर विचार किया, कुत्ते के मनोभावो, उसके स्वामी के साथ के संबंध आदि के विषय में गहरे सोचते हुए लेखक ने उस कहानी को पाठक के सामने प्रस्तुत कर दिया। अब कोई यह कहे कि कोई कुत्ता ऐसे कैसे कर सकता है तो कहना पड़ेगा कि यह ठीक उसी तरह असंभव नहीं है जैसे "जंगल बुक" में मोगली का पशुओं के साथ रह कर पशुओं जैसे व्यवहार करना।

अमरेंद्र की ये कहानियाँ एक व्यापक सामाजिक चिंता का परिणाम हैं। यह सामाजिक चिंता चाहें पुराने मूल्यों के ह्रास की हो, चाहें नौकरी की तलाश और नौकरी के स्वरूप को ले कर हो, चाहें संबंधों के विघटन को लेकर हो या अकेले रह जाने से उत्पन्न हुई हो पर प्राय: सभी कहानियाँ इस सामाजिक चिंता का परिणाम हैं। ये कहानियाँ तब पैदा होती हैं जब यह चिंता कहानीकार के मानसिक स्तर पर दिन-रात संवेदनाओं का मंथन करती है। इस चिंता की ईमानदारी और उसकी संवेदनशील अभिव्यक्ति ने इन कहानियों को बहुत प्रभावशाली बना दिया है। ये कहानियाँ समाज और व्यक्ति के बीच एक ऐसे वातावरण में घटती हैं जहाँ समाज और व्यक्ति दोनों की सत्ता बराबर से महत्त्वपूर्ण है और दोनों सकारात्मक या नकारात्मक स्तर पर एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। यह वातावरण निर्मल वर्मा के वातावरण जैसा सघन तो है पर रहस्यमय नहीं है। यहाँ पाठक इस वातावरण में होने की “चाहना” नहीं करता अपितु अपने को इस में पाता है यानि वे इन कहानियों की अनुभूति को सांझा कर पाता है। कहानी को घटना से वातावरण तक और चरित्रों की अनुभूति को पाठकों की अनुभूति से जोड़ने में लेखक ने सफलता प्राप्त की है।
अमरेंद्र के लेखन की यह भी विशेषता है कि वे सामान्य से दिखने वाले घटना क्रम में भी चरित्रों का सूक्ष्म भावांकन और वातावरण का सशक्त प्रयोग कर हर कहानी को विशिष्ट बना देते हैं। कहानी के पात्र उस वातावरण से प्रभावित होते हैं, नियंत्रित होते हैं और उनका चरित्र इस वातावरण के माध्यम से उभर कर हमारे सामने आता है। यह वातावरण केवल बाह्य प्रकृति का ही नहीं है अपितु पात्रों के मन और दिमाग में चलने वाले विचारों और भावों से भी मिल कर बना है। अमरेंद्र इस बाह्य और आंतरिक वातावरण की सूक्ष्म विवेचना करने में सिद्दहस्त हैं। मनोभावों का यह सूक्ष्म विवेचन, विश्लेषण अमरेंद्र को अपनी पीढ़ी के अन्य कहानीकारों से अलग करता है और बताता है कि अमरेंद्र में एक अच्छे कहानीकार के सभी लक्षण हैं।

अमरेन्द्र का पिछला कहानी संग्रह भी कला और कथ्य की दृष्टि से उत्तम था, कहानियाँ पाठकों का मन बाँधती थीं और यह संग्रह भी उसी संश्लिष्ट कथा-विन्यास और सशक्त शिल्प का विस्तार है। इस कहानी संग्रह की सभी कहानियाँ उच्च स्तर की हैं और पाठकों को पसंद आयेंगी, ऐसा मेरा विश्वास है। यह कहानी संग्रह बताता है कि कहानी विधा का भविष्य उज्ज्वल है। इस सफलता के लिये अमरेंद्र को बधाई!!

डॉ शैलजा सक्सेना
टोरोंटो, कनाडा

सम्पर्क: shailjasaksena@hotmail.com, shailjasaksena@gmail.com
http://sanjhepal.blogspot.com/

कहानी संग्रह-- गाँधीजी खड़े बाज़ार में, कहानीकार-अमरेंद्र कुमार, पन्ने-१२८, मूल्य : २०० रूपये, प्रकाशकः मेघा बुक्स, एक्स ११, नवीन शहादरा, दिल्ली 1100३२

Sunday, September 4, 2011

संपूर्णता और संपन्नता का संगम कहानी संग्रह "गांधीजी खड़े बाज़ार में"


पिछले दिनों सुश्री देवी नागरानी अमेरिका प्रवास पर थीं. उन्होंने मेरे दूसरे कहानी संग्रह "गांधीजी खड़े बाज़ार में" की समीक्षा लिखी जिसे आपसे साझा कर रहा हूँ - अमरेन्द्र कुमार
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संपूर्णता और संपन्नता का संगम कहानी संग्रह "गांधीजी खड़े बाज़ार में"

लेखन कला की मांग है सम्पूर्णता और सम्पन्नता. लिखना कोई शब्दों की इमारत गढ़ना नहीं है, मानव मन के भीतर की उथल-पुथल, अहसासों का मंथन, जब लगन एवं कथ्य शिल्प से तराश कर एक मुकम्मल स्वरूप पाता है तब वह एक बिम्ब को जन्म देता है और लिखना भी तब ही साकार हो पाता है. यहां मुझे श्री हिमांशु जोशी जी का कथन याद आता है - "लिखना स्वयं एक तपस्या है, आधे मन से लिखा साहित्य अधूरा ही रह जाता है, व्यक्त हुए बिना....!"

लेखन की पहली कसौटी यही है कि वह पाठक को अपनी रौ में बहा ले जाया. लेखक का रचनात्मक कौशल मानवीय संबंधों को उजागर करता हुआ कहानी का रूप धारण करता है, जहां पात्र और परिवेश की कलात्मक अभिव्यक्ति से कहानियां परिपक्वता पाती है. ऐसी ही कलात्मक सम्पूर्णता श्री अमरेन्द्र कुमार की कहानियों में पायी जाती है, जिनका पहला कहानी संग्रह " चूड़ीवाला और अन्य कहानियां " अपनी रचनात्मक ऊर्जा से अपनी पहचान पा चुका है और उनका यह दूसरा कहानी-संग्रह "गांधी जी खड़े बाज़ार में" अब हमारे हाथों में है. उनके अपने शब्दों में, " एक कहानीकार का असली कथ्य उसकी कहानियां ही है.." तो आईये उनकी कहानियों की यात्रा में पात्र, परिवेश और समाज, यहाँ तक की लेखक के साथ हम भी इस तीर्थ के सहयात्री बनें. कहानी लिखना भी तो एक तीर्थयात्रा है.

समाज में हर रोज सामना करते नौजवानों की समस्या है, नौकरी की तलाश! आये दिन की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समस्यायों में इज़ाफ़ा करती यह समस्या "पहला सबक" बनकर सामने आई है. सच ही तो है - पढ़ा-लिखकर, सर्टिफिकेट की तहों को संभालते-संभालते आज का नौजवार हताश-सा हो जाता है, जब राज्य सरकार की ओर से कुछ हजार रिक्तियों के लिए दस लाख से ऊपर आवेदन आ जाते हैं. नौकरी के लिए आवेदन पत्र भेजने से लेकर, प्रवेश-पत्र पाने के आशावादी सफ़र तय करने के पश्चात, पुरसकूं जायज़ बनता है बुलावा पत्र, जिसके आते ही एक नए सफ़र का, यानी अपने निश्चित स्थान पर पहुँचने का विवरण. उफ़ !! विपत्तियों की चिंता भी कहाँ उसे सुविधाजनक बन पाती है.

चुनौतीपूर्ण यात्रा साधनों का इस्तेमाल करते हुए, हालातों की कशमकश से गुजरने के पश्चात भी देखिये किस सुन्दरता से सकारात्मक दार्शनिक पहलू सामने उभरा है - थकावट एक छतरी की तरह मन और शरीर पर तनी होने के बावजूद भी लेखक अपनी सोच की कड़ी से कड़ी जोड़ते हुए अपने हौसलों के साथ लेकर हर कदम पुख्तगी से ज़िंदगी की पगडंडियों पर धरते हुए लिखता है - "कुछ समय हमारे जीवन में ऐसा आता है जब इच्छा और अनिच्छा का अस्तित्त्व मिट जाता है, सिर्फ काल और उसकी गति रहते हैं जो निरंतर चलायमान होते हैं. " सुखद समाचार यह रहा कि कहानी का किरदार अपनी मंजिल तक आन पहुँचा, एक नए सफ़र की शुरुआत के लिए ! अमरेन्द्र जी की भाषा, शैली में एक ख़ासा आकर्षण है जो पढ़ते रहने पर कभी बोरियत को पास फटकने नहीं देता, पढ़ते हुए आभास होता है जैसे हम पाठक भी उस सफ़र के हम सफ़र हैं.
ऐसी ही एक कहानी "तलाश" में भी परिवेश की साधारण समस्याओं और हासिल न होने वाले समाधानों की ओर इशारा है. दस रिक्तियों के लिए दो लाख आवेदन पत्र पाए जाते हैं और इसी दौरान सामाजिक व्यक्ति अपनी अपनी शिक्षा की मरीचिकाओं के बाहर निकलकर जीवन की सच्चाईयों से आँख मिलाने के लिए कतारों में खड़े पाए जाते हैं.

दरअसल साहित्य एक ऐसा लोकतंत्र है जहां हर व्यक्ति अपनी क़लम के सहारे अपनी बात कह और लिख सकता है. यह आज़ादी उसका अधिकार है पर नियमों की परिधि में रहकर. इसी क्रांतिमय साहित्य के माध्यम से समाज की आसपास की समस्याओं को कथा या कहानी की विषय वस्तु बनाने से समाज के बदलाव की अपेक्षा की जा सकती है. एक तरह से साहित्य और समाज एक दूसरे के सहयोगी हैं. "एक दिन सुबह" कहानी भी इन्ही सब उलझी हुई कड़ियों की पेचकश है जिसमें रिटायर्ड जीवन में किरदार की अपनी दिन भर की दिन-चर्या और सुबह टहलने से लेकर आस-पास के कुदरती सौंदर्य का वर्णन है. फिर पार्क में जाने अनजाने लोगों से रोज़ मिलते हुए एक नया रिश्ता कायम हो जाता है और वहां कभी किसी बात पर, कभी किसी बात पर चर्चा होने की संभावना बनी रहती है. यहां समाज के मूल्यों के "तब और आज" के तुलनात्मक लक्ष्य ज़ाहिर किये गए हैं, जहां भाषा के शिल्प सौंदर्य के अनेक अंश अमरेन्द्र जी की लेखनी से अभिव्यक्त हुए हैं. बदलाव को लेकर वे लिखते हैं - "कुछ परिवर्तन एक खतरनाक षडयंत्र की तरह आता है या लाया जाता है. यह ऐसे धीमे ज़हर की तरह है कि हम मृत्यु की तरफ तो बढ़ते हैं लेकिन हम उसे विकास का नाम देते चलते हैं...!" विकास के पुराने और नए मूल्यों में कोइ संधि नज़र नहीं आती. पहले समाज के लोगों के भले के लिए प्रयत्न हुआ करते थे, अब हर कार्य को करने के पीछे एक बौद्धिक आधार होता है. अब वे प्रयास सियासत की चौखट पर व्यापार और सौदेबाज़ी की दुकानें सी लगने लगे हैं. इस कहानी में बड़े ही सलीकेदार शैली और शब्दावली से मानवता के सिद्धांतों को सोच, कथनी और करनी को हित और अहित के पलड़ों पर तोला गया है.

ऐसे परिवेश में तब्दीलियाँ आये दिन, आये पल आँखों के सामने रक्स करती हैं. उसी धरातल पर खड़ा होकर रचनात्मक ऊर्जा से लेखक, ऐसी ही किसी सुलगती चिंगारी के तहत अपने ही अंदर का कोई हिस्सा अभिव्यक्ति के माध्यम से व्यक्त करके अपनी पहचान पा लेता है, कभी शब्दों का जाल बुनकर अपने मन की पीड़ा को व्यक्त करता है, तो कभी भीतर की भावनात्मक अहसासों को एक आकार देकर चिंतन की आधार शिला पर कहानी का भव्य भवन बनाता है.

एक अच्छी कहानी में कला और कथ्य के बीच का एक संतुलन का बरक़रार होना, अमरेन्द्र जी के तेजस्वी बयानों में पारदर्शी रूप से पाया जाता है. पठन के दौरान कहानी के तत्त्व, उनके पात्र, परिस्थितियाँ अपने अन्दर के संसार से तालमेल खाती हुई लगती है जैसे सभी एक ही डगर की यात्रा के सहयात्री हैं. कहानियों की श्रृंखला में एक कड़ी और "कुछ सोचा है" में बचपन से वृद्धावस्था तक विकसित और पुष्ट होती हुई प्रवृति के असर पर रोशनी डालते हुए कथाकार ने उस पीढ़ी और उस पीढ़ी की सोच को सलीके से ज़ाहिर करते हुए लिखा है - "जीवन के किसी मोड़ पर कई बार अपने भी इतने दूर निकल जाते हैं कि उनको पहचान पाना मुश्किल लगने लगता है. उनके ख्याल, उनकी सोच, और वे खुद आपकी पहुँच के बाहर हो जाते हैं, कुछ ख़ास अजनबियों की तरह - एक मुलायम अजनबीपन का अहसास लिए हुए." इस कथन में शब्द सरंचना का नमूना बेमिसाल है - "वो आपको देखेंगे और आप उन्हें भी, लेकिन संपर्क का तार टूटा ही रहता है. दोष उनका नहीं. यह गुज़ारे पल का अनचाहा हिसाब है.." रिश्तों के बीच की नाज़ुक कड़ियों को अपनी गहरी सोच के मंथन के उपरांत सुन्दर सलीके से शब्दों में बुनकर प्रस्तुत करने की यह सलाहियत अमरेंद्र जी की माहिरता में शामिल है.

कहानी "एक अरसे के बाद" पढ़ते हुए आभास हुआ कि जब मन में परिवार, परिवेश और आस-पास की स्थितियां चिंतन-मनन का कारण बन जाती हैं तब ही जाकर किसी रचना का निर्माण होता है, और अगर रचना सिलसिलेवार रूप से इंसान के साथ, उसके जीवन के साथ जुडी हुई होती है तो वह कहानी या उपन्यास का स्वरूप ले लेती है.
दो पीढ़ियों के बीच का अंतर, रिश्तों की नयी परिभाषा बनकर सामने आया है. बच्चों के लिए माँ-बाप धूप में साया, बरसात में छतरी, सर्दी में कम्बल, अकेले में अपना और क्लेश में संबल बन जाते हैं. पर जब बच्चे बड़े हो जाते हैं तब बात वैसी नहीं रहती. उनकी मुट्ठी बड़ी हो जाती है और आशाएं-आकांक्षाएं उससे भी बड़ी..! पाने और खोने का सिलसिला नए क्षितिज की तलाश में रहता है. हर दिन ज़िंदगी नया मोड़ लेती है और नये अनुभव के दरवाज़े खोलती है. हर नई राह पर हर इन्सान का संघर्ष अपना अपना होता है, अपने हिस्से की जंग उसे लड़नी पड़ती है चाहे उसे हार मिले या जीत. यह नियति है. वैसे भी मन की यात्रा लम्बी और द्रुत होती है, कई दिशाओं वाली. रेगिस्तान में भटकता मुसाफिर, सहरा की प्यास लिए अपने प्रयासों से जब कभी एक शबनमी ठंडक पाता है तब भी उसे लगता है कि यह वह नमी नहीं जो वह तलाशता फिरता है. परिवार को सरल सुंदर ढंग से परिभाषित करते हुए लेखक कहानी 'आने वाले कल के लिए' में लिखा है--"परिवार दो व्यक्तियों के एक-दूसरे के प्रति विश्वास की बुनियाद पर टिका होता है. यह बुनियाद आपसी मतभेद और अहम् से हिलती है और समय रहते अगर नहीं बचाया गया तो परिवार बिखर जाता है." आगे इसी सिलसिले में उनका कथन--"नाव जब बिखरती है तो इस बात का कितना अर्थ रह जाता है की किसी किनारे के हिस्से में क्या आया."
सच ही तो है! क्या पता नियति ने अपने अंक में कितने तूफ़ान छुपा रखे हैं और देखते ही देखते वक़्त इंसान का कितना बड़ा हिस्सा खा जाता है. ऐसा ही तो हुआ है मशहूर फिल्म अभिनेता देवकुमार के साथ, जिसकी बेटी पारुल और पत्नी सुनयना की बेमौजूदगी ने उसके जीवन में वो खालीपन भर दिया जो ज़माने भर की दौलत और रौनकें न भर पायीं. परिवार के लोग आमने -सामने थे पर रिश्ते जैसी कोई बात नहीं रही. बहुत देर से उन्हें अहसास हुआ की आकाश अगर बुलंदी है तो धरती उसका आधार ! और फिर मिलने और बिछड़ने को भी तो कारण चाहिए. ऐसी रोचक कहानी जो पाठक को अपने बहाव में बहा ले जाने में सक्षम है के लिए अमरेन्द्र जी को बहुत बहुत बधाई.
हर विषय पर कलम चलने की माहिरता अमरेन्द्र जी की कहानियों की विषय-वस्तु में पाई जाती है. अब उनकी कलम की रवानी हमें बनारस की गंगा के किनारे ले जाती है जहाँ 'मोती बनाम मुक्तेश्वर' नमक कहानी का किरदार मोती, गिरि महाराज के आश्रम में रहता था, एक योगी जो पिछले जन्म की एक भूल की एवाज़ कुत्ते की योनि में जी रहा था. जीवन अच्छाई-बुराई का संगम है, जिसे समाज में रहते हुए लेखक की पैनी नज़र देखती है, बुराई के पीछे अच्छाई, अँधेरे के पीछे रोश्नी. जो कुछ भी वह महसूस करता है, लेखनी को माध्यम बनाकर पाठकों तक वही बात पहुंचता है. कहानी तभी प्रभावशाली होती है जब वह हमारी सोच को अपने तत्वों के माध्यम से बांधे रखती है. पात्र, उनकी शैली, उनके संवाद सभी तत्व कहानी को सशक्तता प्रदान करते हैं. अमरेन्द्र जी ने प्रवेश के पन्नों में भी लिखा है कि अच्छी कहानी कला और कथ्य के बीच एक संतुलन होना बहुत ज़रूरी है. पात्रों की निजी समस्या को, उलझनों, आस्थाओं और विश्वासों का बिम्ब शब्द शिल्प द्वारा ज़ाहिर हो उसके लिए ज़रूरी है कि कहानी की बुनियाद कसी हुई हो ताकि पढ़ते हुए किसी रिक्तता का आभास न हो.
अंत की ओर आते कहानी 'गांधीजी खड़े बाज़ार में' के कुछ अंश रोचक संवादों से मनोरंजन की दिशा दर्शा रहे हैं--ऐसे जैसे गांधीजी मनोरंजन की व्यवस्था का सामान बन कर रह गए हैं!! जिस जनता ने उन्हें 'बापू' और 'राष्ट्रपिता' का दर्जा दिया उसका आज यह हश्र है (इसे क्या कहें उपयोग, सदुपयोग, या दुरुपयोग!) कि सामाजिक दबाव के तहत किराये के गांधीजी पूरा समय झुककर खड़े रहे, कमर तक सीधी नहीं कर पाए, क्योंकि उनका झुक कर खड़े रहने का सौदा हुआ था और कम्पनी की इमेज बनाये रखने के लिए उन्हें झुककर ही खड़े रहकर, मुस्कराकर सभी का स्वागत करना पड़ा.
अमरेन्द्र की कहानियाँ प्रशांत नदी की समतल भूमि में बहती धाराओं की तरह हैं, जो कुछ न कहते हुए भी बहुत कुछ कह जाती हैं, मर्म को छूती हुई हमें प्रभावित ही नहीं, अभिभूत भी करती हैं. कारण है उनकी शब्दावली, शैली, सहजता, सरलता और निश्चलता. यह संग्रह अतीत की सम्रतियों और वर्तमान की अनुभूतियों की सुंदर पारदर्शी अभिव्यक्ति है. इस कहानी कलश के लिए उन्हें हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं !!

देवी नागरानी
न्यू जर्सी, ४ अगस्त २०११, dnangrani@gmail.com
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कहानी संग्रह-- गाँधीजी खड़े बाज़ार में, क़लमकार-अमरेंद्र कुमार, पन्ने-१२८, मूल्य : २०० रूपये, प्रकाशकः मेघा बुक्स, एक्स ११, नवीन शहादरा, दिल्ली 1100३२