Monday, November 1, 2010

मेरा दूसरा कहानी-संग्रह - गांधीजी खड़े बाज़ार में

मेरी कहानियों का दूसरा संग्रह "गांधीजी खड़े बाज़ार में " शीघ्र ही मेधा बुक्स से छप कर आ रहा है । पिछले संग्रह की तरह ही इसमें भी आठ कहानियां संग्रहीत है । प्रस्तुत है इस कहानी-संग्रह की भूमिका -

डिजिटल आर्ट : अमरेन्द्र कुमार, 2010


अपनी बात

मेरी कहानियों का दूसरा संग्रह आपके हाथों में है । एक कहानीकार का असली कथ्य उसकी कहानियां ही है फिर भी अपनी बात के माध्यम से कुछ साझा करना अच्छा लगता है ।

कहानी लिखना क्रिकेट में गेन्दबाजी की तरह लगता है । गेन्दबाज अगर तेज हुआ तो जिस तरह वह गेन्द फेंकने से पहले दौड़ लगाता है उसी तरह एक कहानीकार कहानी लिखने से पूर्व कहानी की पूरी योजना बनाता है। इसके पहले कहानियों के प्लॉट जहां कहीं और जब कभी उसे मिलते हैं उन्हें वह लिख कर रख लेता है। कहानी के प्लॉट अक्सर अक्स्मात ही आते हैं । कहीं कोई घटी घटना, प्रेरक प्रसंग, दृश्य अथवा मन के करीब की कोई विषय-वस्तु प्लॉट और बाद की कहानी के केन्द्र में होते हैं । तेज गेंदबाज जितनी लम्बी दौड़ लगाता है और संवेग प्राप्त करता है उतनी ही दक्षता के साथ वह गेंद को फेंक पाता है । इसी तरह एक अच्छा कहानीकार भी जितनी कहानियों को पढता और मनन करता है सम्भवत: वह भी उतनी अच्छी कहानी लिख पाता है । यह तो बात हुई कहानी लिखने से पहले की तैयारी की । गेंदबाज चाहे जितनी लम्बी दौड़ लगाये लेकिन अगर गेंद फेंकते हुए जरा सी चूक हो जाये तो गेंद "फुल टॉस" अथवा "शार्ट पिच" हो जाती है और बल्लेबाज द्वारा पिट जाती है । वैसे ही अगर कहानी लिखते हुए संतुलन बनाये रखने में थोड़ी चूक हो जाये तो कहानी के बिगड़ जाने की प्रायिकता बढ जाती है । इसी तरह एक दुर्बल कहानी पाठक की नापसन्द और आलोचक की आलोचना का शिकार हो सकती है जैसे बल्लेबाज कमजोर गेंद को दूर उछाल फेंकता है । एक दूसरे किस्म के गेंदबाज जिसे ’स्पिनर’ कहा जाता है वह दौड़ता तो दो कदम है लेकिन अपनी गेंद में ’स्पिन’ यानि ’पेंच’ डालकर वह उसे प्रभावशाली बनाता है । कहानी में भी कुछ सार्थक ’पेंच’ कहानी को प्रभावशाली बनाते हैं । कुछ गेंदबाज तेज गेंद में ’स्पिन’ दे सकते हैं वैसे ही कुछ कहानीकार भी कहानियों में संवेग और पेंच दोनों का बराबर प्रयोग करते हैं । इस अर्थ में एक अच्छी कहानी में कला और कथ्य के बीच एक संतुलन होता है ।

कहानी लिखना कई बार किसी अंजाने पहाड़ी रास्ते से गुजरने जैसा है । शुरु तो आप करते हैं लेकिन उसके रास्ते पहले से तय होते हैं । कहां पर मोड़ आयेगा, कहां पर चढ़ाई और कहां ढलान है इन पर कदाचित ही हमारा कोई अधिकार होता है । इतना जरूर है कि बहुत सी अनिश्चतत्ताओं के मध्य किसी जंगली फूल, कोई रंग-बिरंगी चिड़िया अथवा किसी पहाड़ी सोते अथवा झरने की तरह कुछ आश्चर्ययुक्त और सुखद चीज घट जाती है जिसकी कल्पना कभी किसी कहानी के प्लाट में नहीं की गयी होती । कहानी लिखना पहाड़ी यात्राओं की तरह ही श्रम-साध्य कार्य भी है । लेकिन जैसा कि हम किसी पहाड़ की चोटी पर पहुंचकर शांत, तल्लीन और अंतर्मुखी हो जाते हैं कुछ-कुछ वैसी ही अनुभूति कहानी लिखने के उपरांत भी होती है।

कहानी लिखना एक तीर्थयात्रा भी है । तीर्थयात्रा में कोई अपना नहीं तो कोई पराया भी नहीं होता । यात्रा जैसे-जैसे आगे बढती है लोग मिलते और बिछड़ते जाते हैं। लेकिन वहां मिलने में न तो सुख होता है न ही बिछड़ने का कोई दु:ख । वैसे ही कहानियों की यात्रा में पात्र, परिवेश और समाज, यहां तक कि लेखक, पाठक और आलोचक सभी एक ही तीर्थ के सहयात्री की तरह हैं । पड़ाव सबके अलग-अलग हैं, कई बार रास्ते भी थोड़े अलग हो जाते हैं लेकिन लक्ष्य सबका एक ही होता है । कोई पहले शुरु करता है कोई देर से । कहानी को तो लक्ष्य तक एक कहानीकार पहुंचा देता है लेकिन क्या कहानीकार स्वयं अपने लक्ष्य तक पहुंच पाता है ? संभवत: उसकी कहानी ही बता सके कि वह अपने लक्ष्य से कितना पास अथवा दूर है ।

यह संग्रह अब जब तैयार है तो इसके पीछे कितने लोगों की प्रेरणायें और सहयोग हैं वह बताये बिना अपनी बात पूरी नहीं होगी । दिल्ली में डा. कमल किशोर गोयंका जी से भेंट के दौरान उन्होंने जो सुझाव दिये उनमें एक यह भी था कि पुस्तक नियमित रूप से प्रकाशित करवाते रहें । बाद में उन्होंने एक फोन संवाद में मेधा बुक्स, नई दिल्ली के श्री अजय कुमार जी का सम्पर्क दिया । पहली बार श्री अजय कुमार जी से जब फोन पर बात हुई तो उन्होंने दिल्ली में मिलने की बात कही । राउरकेला प्रवास के दौरान मैंने अपनी पाण्डुलिपि की प्रति अपने चाचा जी श्री कौशलेन्द्र कुमार सिन्हा को दी थी । चर्चा चाहे क्रिकेट मैच की हो अथवा भारत के समाज, राजनीति, बाजार अथवा साहित्य के बदलते परिदृश्य की सबमें वे सहर्ष और सहोत्साह शामिल रहते । बाद में पाण्डुलिपि की फोटो कापी कराने से लेकर डाक से मेधा बुक्स को भेजने का काम उनके कर्मचारी, खिलाड़ी, जो घर के सदस्य जैसा है, ने पूरा किया । अमेरिका लौटने से पहले समयाभाव में मेधा बुक्स के श्री अजय कुमार जी से मिलना नहीं हो पाया लेकिन इतना तो अवश्य है कि जितनी रूचि, आत्मीयता और परस्पर सम्मान की भावना उन्होंने दिखायी वह आज के समय में दुर्लभ होती जा रही है । मैं आभारी हूं श्री अजय कुमार जी और उनके अनुज श्री दीपक मोंगा जी का जिनके माध्यम से इस संग्रह का प्रकाशन सम्भव हो रहा है।

अंत में, यह पुस्तक आप तक पहुंच नहीं पाती अगर जो मेरी प्रिय पत्नी हर्षा प्रिया और मेरा नन्हा पुत्र, अच्युतम, जो अब बीस माह को हो चुका है ने यह सब करने के लिये समय नहीं दिया होता । जितना समय मैंने इस पुस्तक के लिये दिया वह सब उनके हिस्से से ही तो आया । रसोई में काम करते हुए, घर को सम्भालते हुए और बच्चे को सुलाते हुए हर्षा मुझे देख जाती कि अगर मैं कहानी टाईप कर रहा हूं तो वह दबे पांव लौट जाती । और तो और नन्हा अच्युत भी लैपटॉप के पीछे से झांक जाता कि मैं कहानी ही टाईप कर रहा हूं कि बस इन्टरनेट भ्रमण में व्यस्त हूं !!

यह पुस्तक अब अपयुक्त हाथों में पहुंच रही है यही एक लेखक का पारिश्रमिक भी है और पुरस्कार भी ।

- अमरेन्द्र कुमार

Friday, October 15, 2010

परिवार और परिवेश का प्रतिबिम्ब - चूड़ीवाला और अन्य कहानियाँ - एक समीक्षा

समीक्षकः देवी नागरानी

अहले-जमीं से दूर रहने पर उसी दूरी का अहसास, जिये गये पलों की यादें - जिनकी इमारतें खट्टे-मीठे तजुर्बों से सजाई गयी है, उन बीते पलों की कोख से जन्म लेती है सोच, जो इस नये प्रवासी वातावरण में अपने आप को समोहित करने में जुटी है। यहां की ज़िंदगी, आपाधापी का रवैया, रहन-सहन, घर और बाहर की दुनिया की कशमकश ! और कशकश की इस भीड़ में जब इन्सान ख़ुद से भी बात करने का मौका नहीं पाता है तो सोच के अंकुर कलम के सहारे खुद को प्रवाहित करते हैं, प्रकट करते हैं।
कहानी लिखना - एक प्रवाह में बह जाना है। कल्पना के परों पर सवार होकर जब मन परिंदा परवाज़ करता है तो सोच की रफ़्तार अपने मन की कल्पना को इस तरह ख़यालों की रौ में बहा ले जाती है कि कल्पना और यथार्थ का अंतर मिटता चला जाता है। ऐसा कब होता है, कैसे होता है, क्यों होता है - कहना नामुमकिन है। लेखक जब ख़ुद अपनी रचना के पात्रों में इस कदर घुल-मिल जाता है तो लगता है एक विराट संसार उसके तन-मन में संचारित हुआ जाता है और फिर वहां मची हलचल को, उस दहकती दशा को कलम के माध्यम से अभिव्यक्त किये बिना उसे मुक्ति नहीं मिलती.
हर इन्सान के आस-पास और अन्तर्मन में एक हलचल होती है। सोचों की भीड़, रिश्तों की भीड़, पाबंदियों की भीड़, सुबह से शाम, शाम से रात, बस दिन ढलता है, सूरज उगता और फिर ढल जाता है और जैसे जैसे मानव-मन अपने परिवेश से परिचित होकर घुलता मिलता जाता है तो फिर एक अपनाइयत का दायरा बनने लगता है; मन थाह पाने लगता है।
जी हां ! कुदरत के सभी तत्त्वों के ताने-बाने से बुनी हुई ऐसी कहानियां, आधुनिक समाज में बदलते जीवन मूल्यों को रेखांकित करती हुई हमसे रूबरू हो रही है, श्री अमरेन्द कुमार के कहानी संग्रह "चूड़ीवाला और अन्य कहानियां" के झरोखों से। अमरेन्द्र जी का परिचय देना सूरज को उंगली दिखाने के बराबर है। संयुक्त राज्य अमेरिका से निकलने वाली त्रैमासिक हिंदी पत्रिकायें क्षितिज और ई-विश्वा के कुशल सम्पादक रहे हैं. उनकी कहानियों में एक ऐसी दबी चिंगारी पाई जाती है जो पाठक को अपनी आंच की लपेट में लेने से बाज नहीं आती। इस संग्रह में आठ कहानियां है जिनमें मेरी पसंदीदा रहीं - मीरा, चूड़ीवाला, चिड़िया, एक पत्ता टूटा हुआ, ग्वासी, रेत पर त्रिकोण ।
'मीरा' अमरेन्द्र जी की एक लम्बी कहानी है। एक तरह से कोई जिया गया वृतांत, जिसमें विस्मृतियों की अनेक गांठें परस्पर खुलती रहती है। इस संग्रह की भूमिका में उनके ही शब्दों में परतें खोलती हुई कलम कह उठती है - " कहानी मनुष्य की अनुभूत मनोदशाओं का एक पूरा दस्तावेज़ है। यह एक ऐसी दुनिया है जहां सब कुछ अपना है - पात्र, परिवेश, परिस्थ्ति, आरम्भ, विकास और परिणति " आगे उनका कथन है -" कहानी का अंत कभी नहीं होता, उसमें एक विराम आ जाता है। एक कहानी से अनेक कहानियां निकलती है.."
सच ही तो है ! उनकी कहानियां अपने जिये अनुभवों का एक लघु धारावाहिक उपन्यासिक प्रयास प्रस्तुत करती है जो शब्दों के सैलाब से अभिव्यक्त होता है जिसमें कहानी का किरदार, अपने आस- पास का माहौल, रहन- सहन, कथन-शैली से जुड़ते हुए भी किताना बेगाना रहता है। एक विडंबनाओं का पूरा सैलाब उमड़ पड़ता है कहानी 'मीरा' के दरमियान जिसमें समोहित है आदमी की पीड़ा, तन्हाईयों का आलम, परिस्थितियों से जूझते हुए कहीं घुटने टेक देने की पीड़ा, उसके बाद भी दिल का कोई कोना इन दशाओं और दिशाओं के बावजूद वैसा ही रहता है - "कोरा, अछूता, निरीह, बेबस और कमजोर"।
"मां नहीं रही.." खबर आई, समय जैसे थम गया, सांस अटक गयी, आंसू निकले और साथ में एक आर्तनाद" लेखक के पात्र का दर्द इस विवरण में शब्दों के माध्यम से परिपूर्णता से ज़ाहिर हो रहा है। आगे लिखते है " सब कुछ लगा जैसे ढहने, बहने, गिरने और चरमराने और मैं उनके बीछ दबता, घुटता, और मिटता चला गया " नियति की बख़्शी हुई बेबसी शायद इन्सान की आखिरी पूंजी है। मन परिन्दा सतह से उठकर अपनी जड़ों से दूर हो जाता है, लेकिन क्या वह बन्धन, उस ममता, उस बिछोह के दुख से उपर उठ पाता है ?
अतीत की विशाल परछाईयों में कुछ कोमल, कुछ कठोर, कुछ निर्मल, कुछ म्लान, कुछ साफ, कुछ धुंधली सी स्मृतियां, टटोलने पर हर मानव मन के किसी कोने में सुरक्षित पायी जाती है। दर्द के दायरे में जिया गया हर पल किसी न किसी मोड़ पर फिर जीवित हो उठता है । अमरेंद्र जी की क़लम की स्याही कहानी की रौ में कहती-बहती इसी मनोदशा से गुज़रे 'मीरा' के जीवन को रेखांकित कर पाई है, जो बचपन, किशोरावस्था से जवानी और फिर उसी उम्र की ढलान से सूर्योदय से सूर्यास्त तक का सफ़र करती है। कहानी में अमरेन्द्र ने अनुरागी मन के बंधन को खूब उभारा है जहां मीरा की सशक्तता सामने ज़िन्दा बनकर आती है - वहीं नारी जो संकल्पों के पत्थर जुटाकर, अपनी बिख़री आस्थाओं की नींव पर एक नवीन संसार का निर्माण करती है। मानवीय संबंधों की प्रभावशाली कहानी है 'मीरा' !
उम्र भी क्या चीज है - बदलते मौसमों का पुलिन्दा ! शरीर और आत्मा का अथक सफ़र जहाँ हर मोड़ पर एक प्रसंग की परतें खुलती हैं, वहीं दूसरे मोड़ पर एक अन्य कथा को जन्म देती है। जीवन के परिवेश के विविध रंगों के ताने-बाने से बुनी ये कहानियां कहीं प्रकृति के समुदाय के प्रभावशाली बिंब सामने दरपेश कर पाती है, कहीं चाहे अनचाहे रिश्तों की संकरी गलियों से हमें अपना अतीत दोहराने पर मजबूर करती है। कहानी 'चूड़ीवाला' एक और ऐसी कहानी है जिसका मर्म दिल को छू लेता है। इसके वृतांत में 'सलीम चाचा' नामक चूड़ी बेचनेवाले किरदार का ता-उम्र का सफ़र और सरमाया है जो उन्होंने बख़ूबी निभाया है सामने आया है, जिसने बालावस्था से वृद्धावस्था तक हर चौखट की शान को अपनी मान-मर्यादा समझा। एक मोड़ पर आकर उन्हें यह अहसास दिलाया जाता है कि "घर की बहू बेटियाँ उनकी बेची चीज़ों की खरीदार हैं और वे फ़कत बेचनेवाले" । इन्सान के तेवर भी न जाने कब मौसम की तरह बदल जाते हैं ! कभी एक ही चोट काफ़ी होती है बिखराव के लिये। ऐसा ही तूफान उमड़ा सलीम चाचा के मन में और वही उन्हें ले डूबा। परस्पर इन्सानी रिश्तों का मूल्यांकन हुआ जिसमें एक अमानुषता का प्रहार मानवता पर भारी साबित हुआ।
शैली और शिल्प का मिला जुला सरलता से भरा विवरण कहीं-कहीं अमरेन्द्र जी की कल्पना को यथार्थ के दायरे में लाकर खड़ा करता है - एक चलचित्र की तरह उनकी कहानी 'चिड़िया' में। जिसमें एक मूक गुफ़्तार होती है उस बेज़ुबान चिड़िया और कहानी के मूल किरदार के बीच; जहां एक नया रिश्ता पनपता है। ऐसा महसूस होता है कि स्वयं को सबसे विकसित प्राणी मानने वाले मनुष्य को भी अपने परिवेश से और बहुत कुछ सीखना बाकी है. एक संबंध जो मानव मन को एक साथ कई अहसासात के साथ जोड़ देता है, उस पल के अर्थ में अमरेन्द्र जी की भाषा ज्ञानार्थ को ढूंढ रही है, अपनी -अपनी कथा कहते हुए. जो सीमाओं की सीढ़ियाँ पार करते हुए शब्दावली की अनेक धाराओं की तरह निरंतर कल-कल बह रहीं हैं, उस चिड़िया के आने और न आने के बीच की समय गति में मानवीय मन की उकीरता, उदासी, तड़प, छटपटाहट शायद कलम की सीमा से भले परे हो, पर मन की परिधि में निश्चित ही क़रीब रही है. कहना, सुनना और सुनाना शायद इसके आगे निरर्थक और निर्मूल हो जाते हैं. रिश्ते में एक अंतहीन व्यथा-कथा शब्दों से अभिव्यक्त होकर मन के एक कोने में अमिट छाप बन कर बस जाती है.
सशक्त भाषा, पुरसर शैली और क़िरदार की संवाद शक्ति, शब्दों की सरलता इन कहानियों को पठनीय बनाती है. शब्द शिल्प की नागीनेदारी उन्हें और भी जीवंत कर देती है. कहानियों के माध्यम से लेखक अपने ही मन की बंधी हुई गांठें और मानव-मन की परतों को भी उधेड़ रहे हैं, उदहारण के लिए कहानी 'गवासी' ही लें. ज़मीन से जुडी यादें हरेक शख़्स की यादों के किसी हिस्से पर अधिकार रखती है और इंसान चाहकर भी ख़ुद को उन अधिकारों से वंचित नहीं रख पाता. ऐसी ही नींव पर ख़ड़ी है गवासी-एक इमारत जो स्मृतिओं के रेगिस्तान में अब भी टहलती है, बीते हुए कल के 'आज' भी जिसके आँगन में पदचाप किये बिना चले जाते हैं‍- जैसे किसी बुज़र्ग के फैले हुए दामन में, जो अपने परिवार को बिखरने से बचाने के लिए अपने अंत को टाले हुए है.
इस शैली के प्रवाह पर सोच भी चौंक पड़ती है, ठिठक कर रुक जाती है . "मृत्यु तो जैसे आ गयी, लेकिन जीवन ने जैसे आत्म-समर्पण करने से मना कर दिया हो...हाँ ऐसी ही है "गवासी" आश्चर्य चकित रूप में ख़ुद से जोड़ने वाली कहानी...कहानी कम..वृतांत ज़ियादा.
"एक पत्ता टूटा हुआ" काफ़ी हद तक मौसमों के बदलते तेवर दर्शाता हुआ वृतांत लगा. जो हवाओं के थपेड़ों के साथ जूझते हुए सोच की उड़ानों पर सवार होकर घर से दूर, मंजिल तक का सफ़र तय कर पाया है.
वो दर बदर, मकाँ बदर, मंजिल बदर हुआ
पत्ता गिरा जो शाख से जुड़ कर न ज़ुड़ सका
कथा में हास्य-रस का स्वाद भी ख़ूब है. एक पत्ता अपने-अपने जीवन के हर पहलू का बयाँ कर रहा है, स्नेह के छुहाव का, प्यार की थपथपी का, औरों के पावों तले रौंदे जाने पर चरमराहट का, किताबों की कैद से रिहाई पाने के बाद ठण्ड के अहसास का, बड़ा ही सहज और रोचक प्रस्तुतीकरण है. लेखक की यह ख़ूबी, पाठक को अपने साथ बाँध रखने की, अपने आप में एक मुबारक अस्तित्त्वपूर्ण वजूद रखती है. जहाँ उम्र भर का अनुभव पल में सिमट रहा हो, वहीं पलों की गाथा ता-उम्र के सफ़र में भी संपूर्ण नहीं होती. रेखांकित की गई विषय-वस्तु सजीव, हास्य-रस में अलूदा एक पत्ते की आत्मा-कथा का चित्रण अति प्रभावशाली सिलसिले की तरह चलता रहा.
कहानी "रेत का त्रिकोण" मानव- मन की दशा और दिशा दर्शाती है, बिछड़कर भी जुड़े रहने की संभावना की पेचकश है . कोई एक सूत्र है जो इंसान को इंसान से जोड़ता है, कोशिशें तो होंगी और होती रहेंगी, पर कब तक? क्या रेत के टीले पर बना भवन हवा के थपेड़ों से खुद को बचा पाया है? क्या रेत को मुट्ठी में कैद रख पाना संभव है? कई सवाल अब भी जवाब की तलाश में भटक रहे हैं, सर फोड़ रहे हैं. मानव- मन का प्रवाह अपनी गति से चल रहा है और भाषा का तरल प्रवाह पाठक के मन को मुक्ति नहीं दे रहा है.
"रेलचलित मानस" नामक कहानी अपने उन्वान का प्रतिबिम्ब है. दुनिया के प्लेटफ़ॉर्म पर खड़ी भीड़ का एक हिस्सा है मानव. सफ़र में इस छोर से उस छोर तक का अनुभव ही ज़िन्दगी को मान्यता प्रदान करती है -जो आज के माहौल की आपाधापी में गुज़र जाती है, रूकती नहीं. जो गुज़रती रहे गुज़रने के पहले वही तो ज़िन्दगी है !
अमरेन्द्र जी की कहानियाँ अपनी विषय-वस्तु, वर्णन-शैली के कारण रोचक और पाठनीय है, कभी कहानियाँ एक दुसरे से जुडी हुई, ज़मीन से, जड़ से, मानवता से- जैसे जीवन की धार में अनुभव रुपी मोती पिरोये गए हैं . प्रकृति के हर एक मौसम का वर्णन प्रभावशाली बिम्ब बनकर सामने आता है. इन कहानियों की एक ख़ूबी यह भी है- वे जहाँ से शुरू होती हैं, वहीँ समाप्त होकर, और फिर वहीँ से प्रारंभ होने की सामर्थ्य भी रखती हैं. इस दिशा में एक कदम आगे और आगे बढ़ते रहे इसी शुभकामना के साथ

समीक्षकः देवी नागरानी

न्यू जर्सी, यू. एस. ए. dnangrani@gmail.com,
पुस्तकः चूड़ीवाला और अन्य कहानियाँ, लेखक; अमरेन्द्र कुमार, पन्नेः१७४, कीमतः रु॰125, प्रकाशकः पेंगुइन बुक्स एंड यात्रा बुक्स

Wednesday, July 21, 2010

भीड़

भीड़

(१)
भीड़ में नहीं होती कविता
भीड़ में होता है कोलाहल
कविता अमृत है नहीं हलाहल
अमृत अकेला ही होता है
मात्र विष इकठ्ठे होते हैं ।

(२)
कवियों की भीड़
लेखकों की भीड़
आलोचकों की भीड़
पुरस्कारों की भीड़
पत्रिकाओं की भीड़
संस्थाओं की भीड़
नेताओं की भीड़
स्वयंसेवकों की भीड़
संतों की भीड़
मठों की भीड़
ज्ञानियों की भीड़
मूर्खों की भीड़
भूखों की भीड़
अघायों की भीड़
कारों की भीड़
बजारों की भीड़
चिमनियों की भीड़
धुओं की भीड़
पेड़ काटने वालों की भीड़
पेड़ लगाने वालों की भीड़
हिंसकों की भीड़
अहिंसकों की भीड़
धरती दब रही है
गगन ढक रहा है
शरीर बढ रहा है
आत्मा दब रही है
समाज बंट रहा है
सरोकार घट रहा है
सब कुछ लौट आयेगा
मन की शांति
आत्मा का आलोक
आसमान को वायु
धरती की आयु
पेड़ को फूल-फल
सूखे घाटों का जल
अगर जो कम हो जाये
ये चतुर्दिक भीड़

(३)

मैं जीवन भर
दौड़ता रहा
जब से इस धरती पर आया
स्कूल की पढाई में
खेल-कूद में
गीत-संगीत में
बाद के दिनों में
कालेज में
नौकरी में भी
परिवार के पीछे
पड़ोसियों के आगे
देश और सीमा से परे
मैं दौड़ता गया
मैं दौड़ता गया
भीड़ में खो गया
पर एक दिन
मैं रुक गया
लोगों ने मुड़ कर देखा
दौड़ने वालों ने
ठहरे हुए लोगों ने
यहां तक जिन्होंने
दौड़ना शुरु भी नहीं किया था
सबने मुझसे कहा
भीड़ में पिछड़ जाओगे
एक जगह हो जड़ जाओगे
यहां तक कि सड़ जाओगे
लेकिन मैं जो रुका तो हिला नहीं
लोग मुझे देखते, ठहरते
कुछ सोचते फिर आगे बढ जाते
कुछ समय के बाद
वे लोग मुझे फिर मिले
जो मुझे छोड़ आगे बढे
क्योंकि दुनिया गोल है
वे कहने लगे कि
तू अभी भी यहीं पड़ा है
कब से सड़ रहा है।
मैं मुस्कराया
कुछ हंसे, कुछ रोये
लेकिन मैं जानता था
कि भाग वे रहे थे
मैं नहीं ।

Wednesday, June 9, 2010

एक दिन सुबह

अपनी नौकरी से रिटायर होने के बाद एक एकदम नये और अंजाने शहर में बसने का फैसला मेरा ही था। फैसलों में किसी की राय लेना और फैसला में उन राय-मशवरों की भूमिका में बहुत फर्क होता है। मैं नहीं चाहता था कि मेरी नौकरी और नौकरी से जुड़ी चीजे मुझे बाद के जीवन में दूर तक पीछा करे। यह खासकर बहुत सहज होता है उन नौकरियों में जिस तरह की नौकरी में मैं था। भारतीय प्रशासनिक सेवा में बहाली से लेकर, पचासों शहरों में सैकड़ों पदों पर काम करते हुए दिल्ली में सचिव बनने और फिर रिटायर होने के पहले के कुछ अंतिम दिनों तक जिस भूल-भूलैया से गुजरता हुआ मेरा जीवन बीता था उसे बाद में मैं बदले हुए रूप में बिताना चाहता था। बहुत लोग मेरे ही बैच के जो साथ में रिटायर हुए थे उनकी योजनायें आपस में मिलती थीं। उनमें से ज़्यादातर लोग मेट्रोपॉलटिन शहरों में बस गये, दिल्ली, मुम्बई, कलकत्ता आदि। कुछ अपने विदेश में रह रहे अपने बच्चों के पास चले गये। कुछ जो दक्षिण भारत से आये थे उन्होंने अपने क्षेत्र में लौटने का फैसला लिया था। आज कभी जब सोचता हँप तो लगता है कि रिटायर होने के पहले के कुछ दिनों और अपनी मसूरी में हुई ट्रेनिंग में कितना फर्क था। हालाँकि बहुत लोगों में वही ललक थी- नये सिरे से सब कुछ शुरू करने की। लेकिन, ज़्यादातर लोगों जिनसे मैं बाद के दिनों में भी सम्पर्क में रहा वे और उनके निर्णय किन्हीं और शर्तों पर आधारिँत थे। मेरे लिये भी मेरा यह फैसला इतना सहज न होता अगर संरचना, मेरी पत्नी, विदेश में मेरे बसे बच्चों के साथ रहने की इच्छा के बाद भी मेरे फैसले में मेरे साथ न रहती।
अंजाने शहरों में रहना मेरी आदत बन चुकी थी। पहले पढ़ने के लिये शहर-शहर मैं भटका उसके बाद नौकरी मिलने के बाद तो शहर बदलना जैसे नियति बन गया था। अलग-अलग शहर की अपनी एक पहचान होती है। पूरा शहर जैसे एक खास किस्म के राग या लय में बंधा-सा लगता है- एक सिरे से दूसरे सिरे तक एक ही डोर से बंधा हुआ। प्रशासक होने के नाते आम लोगों के बीच में जाना अक्सर होता था लेकिन उनके जीवन में पैठ उतनी हो नहीं पाती थी कुछ प्रशासकीय व्यवधानों के कारण। लेकिन, समाचार पत्रों, प्रेस, मीडिया और स्थानीय नेताओं के जरिये, कभी उनकी समस्याओं तो कभी उनकी माँगों को लेकर शहर का ऐसा ताना-बुना मेरे सामने आता था जिससे मैं पहचान पाता था कि वह शहर किसी अन्य शहर से कितना भिन्न है या कितना समान।

गुड़गाँव के सेक्टर-१४ में एक फ्लैट में मैं और मेरी पत्नी और साथ में एक पुराना नौकर तीन ही लोग रह गये थे। यहाँ हमें आये हुए अभी तीन महीने ही हुए थे। बड़ा लड़का, अनीश और छोटी लडकी, क्षिप्रा मेरे रिटायरमेंट के समय अपनी छुट्टियों में अमेरिका और आस्ट्रेलिया से भारत आये हुए थे। और उन लोगों के रहते हुए ही हमलोग इस फ्लैट में आ गये थे। वे भी मेरी इस बात से सहमत थे कि दिल्ली के पास होने के साथ-साथ गुड़गाँव में रहना दिल्ली में रहने के बजाय सहज होगा। मेरी अंतिम पोस्टिंग दिल्ली में आज से पाँच साल पहले हुई थी। तभी लोगों ने मुझे दिल्ली में बस जाने के सुझाव दिये थे लेकिन मैं अपने उस निर्णय को अंत समय तक टालता रहा। यह नहीं कि दिल्ली में किसी प्रकार की असुविधा होती, लेकिन जैसा कि मैंने पहले बताया कि मैं अपनी नौकरी के दिनों की छाँह अपने रिटायरमेंट के दिनों पर नहीं पड़ने देना चाहता था।

जल्दी ही मुझे महसूस होने लगा कि रिटायरमेंट के बाद के जीवन में एक अजीब-सा खालीपन आ जाता है। खासकर जब कि मेरी नौकरी में पहले इतनी व्यस्ततायें थी कि कई बार दिन-महीने और साल का पता भी नहीं लगता था। ऑफिस के बाहर आम लोगों की भीड़ और भीतर फाईलों, आफ़िसरों, फोन और योजनाओं और उनकी पेचिदगियों के मध्य कभी पता न चला कि नौकरी के पैंतीस वर्ष कैसे बीत गये।

मेरी नींद सुबह जल्दी ही खुल जाती तो देखता कि संरचना पहले से उठ बैठी है। पैरों के जोड़ों में दर्द होने के बाद भी उसे बिस्तर पर ज़्यादा देर तक रहा नहीं जाता। खिड़की के परदे हटाकर देखता तो अंधेरा अभी छँटा भी न होता। मैं उठकर बाहर घर के पीछे के लॉन में चला जाता। सुबह की ठंडी हवा चेहरे पर तैरने लगती तो रात भर एयरकंडीशनर की हवा से शुष्क हुई त्वचा पर जैसे लगता कि कोई मरहम लगा रहा हो। मैं थोड़ी देर वहीं अप्रील की रात के नीचे बैठा रहता। आसमान में तारे छितरे जान पड़ते, बादलों की हस्ती कुछ धब्बों से ज़्यादा नहीं जान पड़ती। कहीं दूर किसी इक्के-दुक्के गाड़ियों के चलने की आवाज या किसी कुत्ते के भौंकने के सिवा सुबह की उस स्तब्ध नीरता में कोई अतिरिक्त हलचल नहीं होती। संरचना पीछे से आकर मेरे बगल में बैठ जाती। हम कितनी देर तक वहाँ बैठे रहते चुप-चाप। हमारी बातचीत के दायरे में अब बच्चों के कुशल-क्षेम के सिवा कुछ और न आ पाता। उनके फोन भी हर दूसरे दिन आ जाया करते थे इसलिये उनके लिये शुरू में होने वाली चिंता भी अब धीरे-धीरे तिरोहित होने लगी थी। ऐसे में बातों का कोई सूत्र हाथ न लगता देख हम में से कोई उठकर टहलने लगता या फिर ऐसी उलझन से ‘साहब चाय बना दूँ क्या?’ मनोहर की पेशकश हमें बचा ले जाती। मनोहर हमारा सबसे पुराना नौकर था जो आज भी हमारे साथ था। साथ से याद आया कि समय की लहरों में साथ की कितनी नौकायें समय से पहले ही तिरोहित हो गयी थीं। उनका हिसाब भी अब सम्भव नहीं था।

बाहर जब सुबह का उजाला फैलने को होता तो मैं तब तक तैयार होकर डायनिंग हॉल की मेज पर चश्मा लगाये अखबार पढ़ने लगता। मनोहर लाकर मेरी छड़ी दे देता तो मुझे लगता सुबह की सैर का समय हो गया है। पीछे से संरचना की कभी खांसने की तो कभी जोड़ों के दर्द की वजह से कराहने जैसी आवाज मेरा देर तक पीछा करती जब मैं अगली मोड़ तक नहीं पहुँच जाता। अप्रील की उस चमकीली सुबह में कंक्रीट की सड़क से उठती गरम धारायें शरीर को कभी-कभी सेंकती हुई-सी लगती। दिल्ली में पंडारा स्थित निवास के पास हरियाली होने के कारण सुबह कभी इतनी गर्मी नहीं लगती थी। लेकिन यहाँ हरियाली का कहीं नामो-निशान न था। हरियाली के नाम पर कुछ झुलसे हुए पेड़ और बाज़ार के पहले गुलमोहर का एक विशालकाय पेड़ ही था। मुझे कई बार लगता था कि गर्मी की तपिश में जहाँ सारे पेड़ मुरझा जाते थे वहीं गुलमोहर का पेड़ खिला-खिला सा रहता था। मैं चलते-चलते एक पल के लिये ठिठक कर गुलमोर के उस ढीठ पेड़ को देखता रहता। उसके हरे पत्ते के झुरमुट के बीच लाल-लाल फूल दल और दिमाग को बड़े सुकन देते थे।

पार्क जैसे-जैसे पास आता, वहाँ टहलने वालों की जानी-पहचानी सूरतें दिखायी देने लगतीं। अभी मेरी किसी से जान-पहचान नहीं थी इसलिये कुछ लोगों से मुस्कुरा भर लेने का ही नाता था। पार्क के गेट पर पहुँचते ही हवा के ठंडे झोंकों का रेला सा उठता। अन्दर पहुँचते ही तापमान में तीव्र गिरावट लक्षित हो जाती। मैं पार्क के दो-तीन चक्कर लगाने के बाद वहीं पास की बेंच पर देर तक बैठा रहता। कई लोग आते-जाते। कुछ दौड़ते थे तो कई लोग तेज़ कदमों से चलते थे पार्क के किनारे बनी पतली सड़क पर। कुछ लोग इतने धीमे टहलते कि लगता कि बस रस्म अदा कर रहे हों। मैं अपना ध्यान उनसे हटाकर अपने लिपटे हुए अखबार को खोल कर पढ़ने लगता। फिर तो मुझे ख्याल भी न रहता कि आस-पास क्या हो रहा है।

उस दिन सुबह मैं रोज की तरह पार्क के तीन चक्कर लगाने के बाद अखबार पढ़ रहा था कि कोई मेरी बेंच पर आकर मेरे बगल में बैठा था। मैंने ध्यान नहीं दिया होता अगर उन्होंने मुझसे अखबार माँगकर पढ़ने का अनुरोध न किया होता। मैं तब तक अखबार एक बार पढ़ने के बाद दोहरा रहा था इसलिये मैंने अपना पूरा अखबार सम्भालने के बाद उन्हें दे दिया। वे बहुत कम समय तक अखबार को देखते रहे, पढ़ने का उपक्रम करते लगे थे मुझे लेकिन मैं तब तक आने-जाने वालों को देखने लगा था। जल्दी ही उन्होंने अखबार को हम दोनों के बीच रखने के बाद कहा कुछ, ऐसा लगता था जैसे अखबार को साक्षी बनाकर वे कुछ कहना चाहते थे।

‘आपको पहले कभी देखा नहीं यहाँ, सेक्टर में आप नये आये हैं क्या?’

मैं मुड़ा था उनकी तरफ और उनका प्रश्नब मेरी चेतना से टकरा भर गया था, ‘माफ कीजियेगा, मैंने सुना नहीं। आपने कुछ पूछा था?‘

वे थोड़ी देर तक मुझे देखते रहे मानो तौल रहे हों कि वह प्रश्ने क्या फिर से पूछना ठीक होगा।

‘आप क्या यहाँ नये आये हैं?’
‘जी हाँ, मैं तीन महीने पहले ही इस सेक्टर में आया।’ मैंने कहा था। वह थोड़े उद्‌भ्रांत से लगते थे। दाढ़ी खिचड़ी थी और कुर्ता पायजामा पहने हुए थे। उम्र कोई पैंसठ-सत्तर साल रही होगी।
‘इसके पहले आप कहाँ....’ प्रश्ने पूरा करने से पहले उन्हें कुछ याद आ गया या कुछ और सोचने लगे लेकिन वह प्रश्नन देर तक हमारे और उनके बीच झूलता देख मैंने ही पहल की,
‘मैं इसके पहले दिल्ली में था।’ लेकिन वे अखबार के पन्नों को पलटते रहे जैसा अक्सर बातचीत के क्रम में सोचने के दौरान होता है। मैंने ज़ारी रखते हुए कहा, ‘आप तो काफी समय से होंगे इस शहर में?’
‘काफी समय....’ एक प्रश्नन उनके चेहरे पर तैर गया था, वे सोचते रहे लेकिन किसी नतीजे पर पहुँचते नहीं लगे तो मैंने कहा,
‘समय बहुत तेज़ी से गुज़र जाता है। और, हमें कई बार याद रखना मुश्किल हो जाता है कि कोई बात कब हुई थी।’ मैंने एक उच्छवास के साथ कहा।
उनकी आँखों में कुछ चमका था। वे मेरे पास थोड़े और खिसक आये। अखबार वहीं बेंच के किनारे रख छोड़ा था जो रह-रह कर फड़फड़ा उठता था।
‘आपको मैं बताऊँ तो मैं जालंधर का रहने वाला हूँ। यहाँ आये हुई कितने साल हुए मुझे ठीक से याद नहीं।’ फिर थोड़ा रुकते हुए बोले, ‘लेकिन मैंने स्कूल तक की पढ़ाई जालंधर में पूरी की थी। मुझे पढ़ने का बहुत शौक था।’ उनके स्वर में वही ललक थी जो अक्सर बढ़ते बच्चों में पायी जाती है जब उनसे कभी अपने कौशल के बारे में पूछा जाता है।
‘...और मैंने बहुत पढ़ाई भी की। मुझे नहीं पता कि आपने पढ़ाई कितनी की और आप क्या करते हैं लेकिन पढ़ना मेरे लिये ज़रूरत और शौक दोनों ही था।’

वह जब साँस लेने के लिये रुके तो मैंने कहा, ‘जी, अभी-अभी मैं रिटायर हुआ हूँ।’ वे मुझे देखते रहे, हल्की मुस्कान उनके होठों पर उतर आयी थी जो पपड़ायें होठों पर पूरी तरह फैल न सकी। फिर मेरे बोलने से पहले ही बोल उठे,

‘बाद में मैं दिल्ली यूनिवर्सिटी से अर्थशास्त्र में पी.एच.डी की डीग्री हासिल की।’ थोड़ा रुकने के बाद फिर बोलना शुरू किया, ‘उसके बाद मैंने वहीं पढ़ाना भी शुरू कर दिया था। बाद के दिनों में मैने जामिया मिलया इस्लामिया ...’ फिर अचानाक रुक गये, ‘आपने इस यूनिवर्सिटी के बारे में सुना होगा ‘ यह कहने के बाद भी वे मेरी तरफ देखते रहे जैसे प्रतीक्षा मेरे ‘हाँ ‘करने की कर रहे हों।

‘हाँ-हाँ यह तो बहुत ही चर्चित शिक्षा संस्थानों में से एक है।’ मैंने उन्हें आश्वास्त करते हुए कहा।
’वो सब तो ठीक है। लेकिन आज कल सब कुछ बदल रहा है। न तो अब वो पढ़ाने के तरीके रहे, पढ़ाने वाले रहे और न पढ़ने वाले।’ वे अचानक असंतुष्ट-से दीखे। हालाँकि यह उस प्रकार का असंतोष न था जो अक्सर ऑफिस या दोस्तों की महफिल में आम चर्चाओं के बीच उतर आता है। कहीं यह बात उनके दिल में लम्बे से कचोटती रही हो, ऐसा उनकी बातों से लगा। जब वे चुप हो गये तो मैंने कहा,
‘यह आप सही कह रहे हैं। लेकिन इसको इस अर्थ में भी लिया जा सकता है कि सभी कुछ परिवतर्नशील है। जो और जैसा पहले था वो अब नहीं हो सकता और जो अब और जैसा है वह आने वाले कल में भी वैसा नहीं रहेगा।’ मैंने कोई अलग और नयी बात नहीं कही थी और मुझे यह मालूम था लेकिन वे सहमत होते नहीं लगे।
‘खैर, मैं नहीं मानता कि हर बदलाव को हम स्वाभाविक मान लें। कुछ परिवर्तन एक खतरनाक षडयंत्र की तरह आता है या लाया जाता है। यह एक ऐसे धीमे ज़हर की तरह है कि हम मृत्यु की तरफ तो बढ़ते हैं लेकिन उसे हम विकास का नाम देते चलते हैं। क्या विकास सिर्फ समय के गुजरने के स्केल पर ही मापा जाना चाहिये?’ बोलते हुए उनके होठ थोड़े काँपने लगे तो उन्होंने उसे जीभ से तर कर लिया था। यह ऐसा विषय था जिसके बारे में एकदम से अपना मत दे पाना मुझे असम्भव जान पड़ा। मैं उनकी तरफ देखता रहा। मुझे निरूत्तर देख उन्होंने बातों का सिलसिला मोड़ दिया।
‘खैर, तो मैं यह बता रहा था कि मैंने जामिया मीलिया में कुछ वषों तक पढ़ाया। मैं पढ़ाने के साथ-साथ रिसर्च भी करता था। मैंने अपने रिसर्च के आधार पर दो पुस्कें भी लिखीं, ‘लाभ का मनोवैज्ञानिक पक्ष’, ‘व्यक्ति, समाज और स्वार्थ’। इसके अलावा मेरे बहुत से पेपर्स भी प्रकाशित हुए। कभी आप मेरे यहाँ आये तो मैं आपको दिखाऊँगा।’ कहकर वह मुस्कुराने लगे थे जैसे कि हम बचपन में अपने दोस्तों को अपने नायाब खिलौने के बारे में कुछ बता कर तो कुछ छुपा कर उन्हें ललचाना चाहते हैं।
‘लेकिन, मैं विकास के एक पक्ष से सहमत नहीं हूँ। आज जो हमारे समाज में मूल्यों की गिरावट एक परचून की दुकान से लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर के व्यापार और सौदों में दिखायी देती है वह विकास के एकपक्षीय प्रधानता के कारण ही है। किसी भी तरह सब कुछ भी पा लेने का होड़ ने एक ऐसी दौड़ में आज के व्यक्ति को धकेल दिया है जहाँ वह अगर भीड़ के साथ भाग नहीं सकता तो उसका कुचला जाना निश्चित है। ऐसे ही क्षण मैं उन पुराने मूल्यों की तरफ लौटने लगता हूँ जब कि हर कार्य को करने के पीछे एक बौद्धिक आधार होता था। जहाँ लोगों का कल्याण ही प्रमुख लक्ष्य हुआ करता था। लेकिन अब ऐसा नहीं है।’ वे रुके तो मैंने घड़ी देखी, समय कुछ ज़्यादा न हुआ था लेकिन धूप तेज़ होने के कारण पार्क में लोग कम पड़ते जा रहे थे।
‘यह आप सही कह रहे हैं और भ्रष्टाचार भी उस लाभ का ही एक रूप है।’ मैंने उनके विचारों से सहमत जतायी तो वे हँसने लगे। कुछ कारणों से यह विषय मेरे अंतःकरण में भी एक लम्बे अंतराल से घुमर रहा था।
‘भ्रष्टाचार तो एक मियादी बुखार की तरह है। यह समाज में एक समय तक रहेगा ही जब तक हम उसकी तहों में जाकर उसे दूर नहीं करते। आपको मालूम होना चाहिये कि इन सबके पीछे आदमी का वही स्वार्थ है जिसे उसका एक स्वाभाविक लक्षण माना जाता है। यह एक सच है कि हर व्यक्ति के अन्दर स्वार्थ है। लेकिन उस पर काबू पाने के बजाय उसके अधीन हो जाना कायरता है और दगाबाजी है उनके लिये जिनसे वह जुड़ा है। क्योंकि यही स्वार्थ निकटतम सम्बंधों को भी ढहा देता है। और दुनिया का कोई कानून और विधि-व्यवस्था इसे दूर नहीं कर सकते। कुछ देशों ने तो भ्रष्टाचार को वैधानिक मान्यता भी दे दी है।’ वह उत्तेजना में एक हाथ को दूसरे पर ठोकते हुए सम्भल कर बैठ गये। उनके चेहरे के हर कोण से प्रसन्नता ऐसे छलक रही थी मानों कोई नया सूत्र हाथ लग गया हो, फिर कहने लगे, ‘लेकिन इससे भी निदान पाना सम्भव नहीं है। इसका एक ही उपाय है आदमी द्वारा अपने विवेक का सही प्रयोग। उसे पता होना चाहिये कि उसकी जरूरत से ज्यादा किसी चीज को पाना उसके और उसके परिवेश जिसका कि वह हिस्सा है उनके हित में नहीं। आपको मालूम नहीं इससे कितने ही भूखे और गरीब देशों का कल्याण हो जायेगा।’ वह बोल रहे थे और मैं सुन रहा था। ‘यह भी एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि आदमी के अलावा संसार के किसी भी अन्य प्राणी में संग्रह करने का कोई प्रचलन नहीं है।’

ऐसा नहीं कि मैं सहमत नहीं था उनकी बातों से लेकिन अपने लम्बे समय के प्रशासनिक सेवा के अनुभव के केंद्र में कितनी ही ऐसी बातें मेरे सामने आती थीं जिनका उनके द्वारा की जा रही बातों से गहरा ताल्लुक था इसलिये मैं सुनना चाहता था। बहुत कम लोग होते हैं जो वही कहते हैं जो वे सोचते हैं। उनसे भी कम होते हैं जो वह सब करते हैं जो वे कहते हैं। लेकिन फिर एक प्रकार के विश्वा स में या आस्था में जो सुख है उसे कोरे तर्कों के आधार पर तौला नहीं जा सकता। और शायद वे भी इसी मनोदशा से गुजरे हों या गुजर रहे हों यह मेरा विश्वाधस नहीं तो अनुमान तो ज़रूर था।

वह थोड़ी देर चुप रहे, बन्द अखबार खोल कर देखा, पन्ने पलटते रहे फिर बन्द करके बगल में रख दिया। अब पार्क में इक्के-दुक्के लोग ही रह गये थे। मैंने भी घड़ी देखी और सोचा कि अब जाना चाहिये। मैंने उनकी तरफ देखा तो उनका चेहरा अचानक सफेद पड़ गया। वे बदहवाश से उठ खड़े हुए। इसके पहले कि मेरी समझ में कुछ आये मैंने देखा दो लोग उन्हें जबरन कंधे से पकड़ कर ले जाने लगे। मैं हडबड़ा कर उठ खड़ा हुआ। मेरी कुछ समझ में नहीं आया कि क्या करूँ, कोई आस-पास भी नहीं दीखा जिनको बुला पाता। मैंने देखा जब वे लोगों द्वारा जबर्दस्ती लगभग घसीटे जा रहे थे तो उनकी आँखें मेरी तरफ थीं पर पिछले एक-आध घंटे में बनी उनमें पहचान कहीं भी न थी। था तो सिर्फ एक ऐसा खालीपन जो विस्मृति के कागारों से रिसता है, निरतर, निःशब्द...

वे नज़रों से ओझल भी न हुए कि किसी ने मेरे कंधे को छुआ था।

‘घबराईये नहीं। आप पहले बैठ जाईये। मैं आपको सब बताता हूँ।’

मेरे पैर काँप रहे थे यह मुझे तब पता चला जब मैं बेंच पर दुबारा आ बैठा। वे पहले से बेंच पर बैठे थे और उनकी हँसी लाख रोकने के बाद भी रुकती नहीं थी। जब वे थोड़े संयत हुए तो कहना शुरू किया, ’दरअसल आप नये हैं यहाँ इसलिये आपको कुछ भी नहीं मालूम। आप अभी जिनसे बात कर रहे थे और जिनको अभी जाते देखा है वे मेरे बड़े भाई साहब हैं।’ उनकी बातों को सुनकर मुझे जाने क्यों थोड़ी राहत मिली। लेकिन साथ में आश्चकर्य भी शायद इसलिये कि जिस तरह वह रह-रहकर हँसने लगते थे।
‘ओह, मैं ये जानता न था।’ मैंने अखबार के पन्नों को सहेजते हुए कहा, ‘लेकिन आपके भाई साहब बातें बहुत ते की कहते हैं।’
उन्होंने मेरी तरफ देखा, उनकी आँखों में एक शरारत भरी चमक आ गयी थी।
‘तो उन्होंने आपको भी वे सारी बातें बता दीं?‘
‘वे सारी बातें, मतलब मैं समझा नहीं ‘ मैं समझ नहीं पा रहा था वे आखिर कहना क्या चाहते थे।
‘तो उन्होंने कहा होगा कि वे जामिया मिलिया में पढ़ाते थे। और उन्होंने दो किताबें लिखी हैं। यही न?’
वे कहकर मुझे देखते रहे मानो कुछ रहस्योद्‌घाटन होने वाला हो।
‘हाँ, यही नहीं वे आज के समाज और उसकी सोच पर भी गहरी समझ रखते हैं, ऐसा मुझे लगा।’ मैंने अपनी बात पूरी की नहीं थी कि वे ठठाकर हँस पड़े। मैं हैरान कि इसमें इतना हँसने वाली क्या बात हो सकती है। वे कहने लगे,
‘भाई साहब, वे जामिया मिलिया में क्या पढ़ायेंगे उन्होंने कॉलेज तक का मुँह देखा नहीं। दसवीं कर रहे थे तो हमारे पिताजी लाखों का कारोबार छोड़ कर दुनिया से चल बसे। उसके बाद से ही वे कारोबार में जो आये तो निकल न पाये कभी। हाँ, वे हमेशा अफसोस ज़रूर करते रहे कि अगर किस्मत ने धोखा न दिया होता तो वे ज़रूर पढ़-लिख कर समाज को कुछ दे पाते।’ मुझे उनकी ये बातें एक सदमे से कम चौंकाने वाली नहीं लग रही थीं। एक पल के लिये मैं विश्वा स करने की स्थिति में नहीं था जो मैं देख और सुन रहा था लेकिन तब तक मेरे अन्दर पूरी बात जानने की उत्सुकत भी पैँदा हो गयी थी। वे बताते रहे,
‘लेकिन भाई साहब कारोबार में दुगुनी और रात चौगुनी तरक्की करते रहे। मैं भी उनके साथ-साथ था। लेकिन उनके काम करने के तरीके अलग थे। वे कारोबार में फायदे के सिद्धांत को लेकर हम सब से अलग सोच रखते थे और कारोबार में इमानदारी को सबसे ज़्यादा तरीजह देते थे। इसको लेकर कई बार हमारे साथ के व्यापारियों में कहा-सुनी भी हो जाती थी लेकिन वे अडिग रहते थे। समय गुजरता गया, हमारे परिवार बस गये। उनकी कोई संतान नहीं है। मेरे दो लड़के भी जल्दी-जल्दी ही इस कारोबार में हाथ बँटाने लगे थे। लेकिन बाद के समय में भाई साहब और उनमें मतभेद होने लगे।’ कहने के बाद वे रुके थे। बायें-दायें देखा और फिर कुछ सोचते हुए कहने लगे,
‘बाद में मेरे बेटों ने धोखा देकर उनको अपने कारोबार से बेदखल कर दिया।’ उनकी आवाज पहली बार संजीदा होने लगी थी।
‘तब से लेकर आजतक उनको उनके कमरे में एक तरह से कैद कर रखा है हमारे बेटों ने। धीरे-धीरे उनकी समझ-बूझ जाती रही। और उसके बाद से ही वे एक ऐसी दुनिया और ज़िन्दगी के बारे में लोगों को बताते हैं जिसे शायद वे जीना चाहते थे कभी....’ उनकी आवाज नम होने के साथ-साथ भारी भी हो रही थी। मैंने देखा उनकी तरफ जो अब बगल में देख रहे थे, शायद नज़र मिलाने की एक हिचक या कि कुछ न कर पाने का अपराध-बोध। मुझे कुछ कहते नही सूझ रहा था। तभी वही दो लोग जो पहले आये थे वे अब हमारे आगे आकर खड़े हो गये।
वे उठ खड़े हुए और कहते जा रहे थे, ‘देखो मैं उन्हें नहीं लाया। वे खुद निकलकर आये होंगे।’ लेकिन उन दोनों पर उनकी बातों का कोई असर होता नज़र नहीं आ रहा था और वे इस तरह से खड़े थे जैसे मोर्चे पर सिपाही सावधान मुद्रा में खड़े होते हैं। ये उनके चौकीदार या बॉडीगार्ड जो भी रहे हों लेकिन उनके चेहरे पर कोई भाव न था।
’देखिये, आप अभी चलिये हमारे साथ।’ उन दोनों ने एक ही साथ कहा।

उन्होंने मेरी तरफ एक कातर दृष्टि डाली और उनके साथ-साथ जाने लगे।

मैं अखबार लेकर उठ खड़ा हुआ। दिन की धूप सर पर चमक रही थी। मैं देर तक उन तीनों को पार्क के दरवाजे तक जाते देखता रहा और फिर मैं घर के लिये वापस चल पड़ा।

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Friday, April 2, 2010

निर्मल वर्मा जयंती


३ अप्रैल १९२९ को निर्मल वर्मा का जन्म हुआ था। निर्मल वर्मा उन चुने हुए साहित्यकारों में थे जिनकी कृतियों को बार-बार पढ़ा जायेगा। उनकी कृतियों की तुलना श्रीरामचरितमानस या श्रीमद्‍भागवतगीता से तो नहीं करूंगा लेकिन कला की दृष्टि से मैं उनकी रचनाओं की ओर बार-बार आकृष्ट होता रहा हूं। इस अर्थ में वे मेरे कुछ चुने हुए रचनाकारों में से एक हैं।

प्रेमचंद और उनके परवर्ती साहित्यकारों जैसे भगवतीचरण वर्मा, फणीश्वरनाथ "रेणु" आदि के बाद साहित्यिक परिदृश्य एकदम से बदल गया। खासकर साठ-सत्तर के दशक के दौरान और उसके बाद बहुत कम लेखक हुए जिन्हें कला की दृष्टि से हिन्दी साहित्य में अभूतपूर्व योगदान के लिये याद किया जायेगा। संख्या में गुणवत्ता के सापेक्ष आनुपातिक वृद्धि ही हुई । इसके कारणों में ये प्रमुख रहे - हिन्दी का सरकारीकरण, नये वादों-विवादों का उदय, उपभोक्तावाद का वर्चस्व आदि। उनके जैसे साहित्यकार से उनके समकालीन और बाद के साहित्यकार जितना कुछ सीख सकते थे और अपने योगदान में अभिवृद्धि कर सकते थे उतना वे नहीं कर पाये। उन्हें जितना मान दिया गया उतना ही उनका अनदेखा भी हुआ । जितनी चर्चा उनकी कृतियों पर होनी चाहिये थी शायद वह हुई ही नहीं। वे उन चुने हुए व्यक्तियों में थे जिन्होंने साहित्य और कला की निष्काम साधना की और जीवनपर्यन्त अपने मूल्यों का निर्वाह किया। एक तरह से वे अपने समय के एक अकेले "स्कूल" थे।

हालांकि वे नयी कहानी के जनक के रूप में जाने जाते हैं पर मेरे विचार में वे कहानीकार से बढ़कर चिंतक और दार्शनिक थे। समय, समाज, साहित्य, अध्यात्म और दर्शन पर उनकी समझ और पकड़ पिछली कई सदियों के साहित्यिक मनीषियों से अधिक गहरी थी। "ढलान से उतरते हुये", "पिछली शताब्दी के ढलते वर्षों में", "कला का जोखिम", "शब्द और स्मृति", "भारत और यूरोप: प्रतिश्रुति के क्षेत्र" जैसी पुस्तकें और उनमें संग्रहीत उनके निबंध इसके प्रमाण हैं।

उनकी कहानियों की यात्रा "परिंदे" से शुरु होकर "पिछली गर्मियों" की "जलती झाड़ी" से होती "बीच बहस में" ठहरती हुई "सूखा" के बाद " कव्वे और काला पानी" तक पहुंची तो ऐसा लगा हिन्दी साहित्य को प्रेमचंद का उत्तराधिकारी मिल गया हो। यह प्रचलित अर्थों में नहीं, बल्कि इस अर्थ में कि प्रेमचंद के बाद कहानी की यात्रा को निर्मल वर्मा की कहानियों के नवीन धरातल, उत्तम शिल्प और गहन/ सघन शैली से ही संवर्धित किया जा सकता था । प्रेमचंद की कहानियों का फैलाव और निर्मल वर्मा की कहानियों की कलात्मक गहराई एक दूसरे के पूरक सिद्ध होते हैं। निर्मल वर्मा साहित्यिक कला के ऐसे शिखर पर नज़र आते हैं जिसके पार ढलान ही ढलान दिखायी देती है।

Sunday, March 28, 2010

कला और युगबोध

आहत विश्व के प्रतिपल रुदन में
खींची मुस्कान की रेखा सस्मित ।
जग की व्यथा, निज के संतप्त मन में
नव चेतना ले कला हुई अवतरित ।

सृष्टि का चक्र जब से है चला
युग बदले और जग भी है बदला ।
मनुज कई बार गिरा, गिरकर सम्भला
गुफा से निकल अब अंतरिक्ष को निकला।

उंचे आदर्शों के उतंग शिखरों से
कवि, निकले तेरी ऐसी कविता धारा ।
फोड़ कर संकुचित वृत्ति के पाषाणों को
बहा ले जाये जो कलुषित विचार सारा ।

व्यक्त करना क्या उन्हें जो स्वयं मूर्त है
व्यक्त करो उन्हें जो सदा से अमूर्त है ।
रोको न उन्हें जो जीवन पथ में आगे बढ़े
जगाओ जिनकी चेतना अब तक सुप्त है।

दंगा, क्रू्रता और उत्पीड़न के पृष्ठों पर
चित्रकार, डालो प्रेम और स्नेह के रंग ।
तूलिका तेरी बन जाये अजेय शस्त्र
जीतो पशुता को मनुजता के संग संग ।

हो चुका रोना बहुत व्यतिक्रमों का
संगीतज्ञ, उठाओ तुम अब सितार ।
रहे न लालसा फिर जग में कुछ पाने का
सुनके जिस दिव्य राग को एक बार ।

ले कोमल भावों की मिट्टी, सरल सी कल्पना
मूर्तिकार, बना सौंदर्य की ऐसी कोई प्रतिमा ।
"गति ही जीवन है" बस असत्य हो जाये
भर दे उसमें चपला सी सजीव चपलता ।

२५ मई, १९९५

Sunday, January 31, 2010

कविता का कारखाना

कविता का भी जो अगर कारखाना होता
जहां हर दिन रची जातीं कवितायें

बाजार की मांग को ध्यान में रखकर
कच्चे माल की उपलब्धि,
कवियों का बाहुल्य
और कविता की खपत को नज़र में रखकर ही
खोले जातें कारखानें ।

सरकार से अनुदान में मिली जमीन
या फिर कर में मिली कटौती
बनती आधार किस राज्य या देश में
खोले जायें कारखाने ।

और भूमंडलीकरण के आज के समय में
क्या आर्थिक और सामाजिक असमानता
कविता के उत्पादन और विक्रय के
निर्णयों को प्रभावित नहीं करते ?

की जाती कवियों की नियुक्तियां
उनकी शिक्षा-दीक्षा, व्यक्तित्त्व
और उनके अनुभव के आधार पर ।

कहीं किया जाता अनुसंधान
कि कैसी होनी चाहिये कविता
कैसे उसकी मांग रखी जाये बरकरार
उपभोक्ताओं की अभिरूचि का आधार
कैसे हो कविता का विकास
रूप-रंग-रस और गंध नया
नया छंद और अलंकार नया ।

या फिर बदली जाती लोगों की अभिरूचियां
सिलसिलेवार और सुनिश्चित योजनाओं के तहत ।

रेडियों-दूरदर्शन और सिनेमाघरों में
नयी कविताओं के आते इश्तेहार
सस्ती और टिकाउं
लम्बी और पतली
सुन्दर और निर्दोष
ताजा और मोहक....

बच्चों-किशोरों-युवकों और बजुर्गों
हर उम्र के लोगों को लुभाने के लिये
होती हर तरह की कवितायें
सबके होते अपने विकल्प
हर कविता की अपनी कीमत होती
हर का होता अपना बाज़ार


हर रोज सुबह कवि आते
हाजिरी देने के बाद
कविता की उत्पादन रेखा पर
कल की पड़ी अधूरी कवितायें
पूरी की जातीं पहले
फिर नये लक्ष्य के आधार पर
शुरु होता कविता का उत्पादन
कविता के दोषों का निरीक्षण
और फिर निराकरण किया जाता
बाजार में भेजने से पहले।

कवियों को मिलती हर महीने मजदूरी
नहीं रहती फिर उनकी आर्थिक मजबूरी
नहीं होते प्रकाशकों के फंदे
या आलोचकों के लटके-झटके
उनके बच्चें भी जाते अच्छे स्कूल
घर में होता सुख और शुकून

कविता के कारखाने खोलने
आती बहुराष्ट्रीय कम्पनियां
देश में होता विदेशी निवेश
स्थानीय कवियों को मिलता अन्तर्राष्ट्रीय मंच
नयी शैली, नया कथ्य और शिल्प नया
नये मनोबल, नयी आकांक्षा और संकल्प नया।

कविताओं की होती छोटी-बड़ी दुकानें
खुल जाते बडे-बड़े माल
लोग अपनी-अपनी हसियत से
खरीद पाते अपनी पसंद की कवितायें।

खास मौसम या त्योहारों पर लगती
कविताओं की खास बिक्री (सेल)
कुछ पुरानी कम बिकने वाली कवितायें
निकाल दी जाती सस्ते दामों पर
और कुछ लोग अपनी हैसियत से
कहीं अधिक कीमत वाली
कवितायें खरीद पातें।

तब कुछ खास कविता को रख पाना
सामाजिक प्रतिष्ठा का चिह्न माना जाता।
और कुछ लोग उसे ललचायी दृष्टि से देखते।

आर्थिक मंदी के दिनों
जब कविता की मांग गिर जाती।
पहले बंद होती कुछ कविताओं का उत्पादन
फिर मंदी के और बढ़ जाने पर
बंद किये जाते कारखानें
छंटनी की जाती कवियों की
खर्चे में कटौती की मार
सबसे अधिक झेलती कविता
क्योंकि तब कविता
वह नहीं होती जो आज है।

*****