Sunday, November 15, 2009

क्षितिज - एक प्रयोग


आज से छ: साल पहले जब क्षितिज के सम्पादन और प्रकाशन की शुरुआत हुई थी तब कोई बहुत बड़ी महत्त्वाकांक्षा नहीं थी इसके पीछे। खेल-खेल में शुरु हुई इस लघु पत्रिका ने प्रयोगों, गुणवत्ता और स्तरीयता के नये आयाम स्थापित किये। दो साल के अंदर यह पत्रिका अमेरिका से निकलकर मध्यपूर्व, भारत और यूरोप होते हुए सिंगापुर, आस्ट्रेलिया और जापान तक पहुंची। लोगों ने इसे सराहा, सहयोग दिया और इसके प्रचार-प्रसार में मदद की। एक साल के बाद २००४ में इसका वार्षिकांक प्रिन्ट रूप में प्रकाशित हुआ। एक साथ प्रिन्ट और ईलेक्ट्रानिक रूप में इसका प्रकाशन २००५ के अंत तक कायम रहा। उसके एक साल बाद तक सिर्फ़ ईलेक्ट्रानिक/वेब रूप में इसका प्रकाशन २००६ तक जारी रहा। आज भी यदा-कदा लोगों के पत्र, रचनायें और फोन आते हैं क्षितिज के प्रकाशन के सम्बंध में। बहुत लोगों ने अनुरोध भी किया कि इसका प्रकाशन फिर से प्रारम्भ करें। लेकिन इसको फिर से शुरु नहीं करने के सम्बंध में मुझे बहुत सोचने की आवश्यकता नहीं पड़ी। यह चर्चा एक ऐसे संदर्भ की तरफ हमें ले जाती है जहां हिंदी की लघुपत्रिकाओं का बड़ा संघर्ष, हिन्दी भाषा और उसके लेखक/पाठक/प्रकाशक का वर्तमान और भविष्य शामिल है। यह एक बड़ा विषय है और इस पर आम तौर पर चर्चा चलती रहती है। मेरा मानना है कि हम चर्चा करने और समस्याओं को खड़ी करने में दक्ष हैं। दूसरे शब्दों में अगर कहें तो हम समस्या उन्मूलक नहीं वरन समस्याजीवी हैं। राजनीति के लिये यह प्रवृति समीचीन है। अगर समस्या नहीं हो तो समाधान करने वालों की आवश्यकता ही नहीं होगी। ऐसे में उनका अस्तित्त्व खतरें में पड़ जायेगा। धीरे-धीरे यही प्रवृति भाषा और साहित्य में आ गयी। इसके कारणों की छानबीन मैं इसके विशेषज्ञों पर छोड़ता हूं। कुछ बातें जो मेरी दृष्टि में गुजरी हैं उनमें से प्रमुख हैं -
१. हिंदी में पत्रिकाओं की तादाद आवश्यकता से ज्यादा है।
२. जहां तादाद ज्यादा है गुणवत्ता और स्तरीयता की भारी कमी है।
३. हिंदी पढ‍ने और लिखने के प्रति लोगों का रुझान तेजी से गिरा है। लिखने वाले ही आपस में पढ रहे हैं। शुद्ध पाठक वर्ग लगभग लुप्तप्राय हो गया है।
४. लेखन-पठन-पाठन-सम्पादन-प्रकाशन हर जगह अनुशासन की भारी कमी है।
५. पूरी प्रक्रिया भविष्योन्मुखी न होकर अतीत के गुणगान और वर्तमान के रोने में अटकी पड़ी है।
६. नये प्रयोगों और शिल्प का भारी अभाव है।





क्षितिज - कुछ तथ्य

सितम्बर २००३ - क्षितिज का पहला अंक प्रकाशित (पीडीएफ फाईल/द्विमासिक ई-पत्रिका)
अगस्त २००४ - क्षितिज का वार्षिकांक प्रकाशित (प्रिंट और ईलेक्ट्रानिक दोनों रूप में त्रैमासिक पत्रिका उपलब्ध)
अक्तूबर २००४ - क्षितिज इंकार्पोरेटेड का पंजीकरण एक अलाभकारी संस्था के रूप में
जनवरी २००५ - क्षितिज का वेबसाईट प्रकाशित / क्षितिज के सभी अंक वेब पर उपलब्ध
जनवरी २००६ - क्षितिज का सिर्फ ईलेक्ट्रानिक प्रकाशन जारी
दिसम्बर २००६ - क्षितिज का १६ वां और आखिरी अंक प्रकाशित
संस्थापक-सम्पादक - अमरेन्द्र कुमार
कला-सम्पादक - हर्षा प्रिया सिन्हा

क्षितिज - कुछ वैशिष्टय
१. पी.डी.एफ फाईल में सम्भवत: हिंदी की पहली ईलेक्ट्रानिक पत्रिका प्रकाशित (२००३)
२. कला-वीथिका का समावेश / कला (रेखांकन/चित्र) और साहित्य की संतुलित प्रस्तुति
३. सभी उम्र के कलाकारों और लेखकों का समावेश - एक ही अंक में ५ से ७५ वर्ष के लेखक/कलाकार सम्मिलित
४. साहित्य-कला के साथ-साथ विज्ञान-अभियंत्रण-प्रबंध सम्बंधित विषयों पर आलेख सम्मिलित
५. वैश्विक भागीदारी और वितरण (अमेरिका से सिंगापुर-आस्ट्रेलिया तक)
६. क्षितिज के प्रत्येक अंक का एक वरिष्ठ साहित्यकार को समर्पित होना
७. विभिन्न विधाओं और क्षेत्रों में योगदान देने के लिये १२ "क्षितिज सम्मान" का आरम्भ

अगर आप क्षितिज के किसी अंक को देखना-पढना चाहें तो मुझे सम्पर्क कर सकते हैं।

2 comments:

  1. प्रश्न बहुत सार्थक है अमरेंद्र जी कि लघु पत्रिकाओं की परिणति प्राय: यह ही क्यों है? बात लघु पत्रिकाओं की ही नहीं, सभी स्तरीय पत्रिकाओं की है। पहले धर्मयुग बंद हुआ, फिर सारिका..और ऐसी ही कई अच्छी पत्रिकाएँ..। इस प्रवृति के कारणों की खॊज का काम आलोचकों और शोध कर्ताओं पर छोड़ भी दें तो भी कुछ ज़िम्मेदारी तो सुधि पाठकों की भी होनी ही चाहिये कि अच्छे साहित्य और पत्रिकाओं को जीवित रख्नने के लिये एक हो कर आवाज़ लगायें..

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  2. नमस्‍कार,

    क्षितिज के पीडीएफ अंक कहां मिलेंगे।

    सादर

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