Monday, July 23, 2012

सोशल नेट्वर्किंग - भाग २


सोशल नेट्वर्किंग

भाग २

ब्लाग आया तो लोग रातों-रात लेखक, पत्रकार, चिंतक और आलोचक हो गये बुद्धिजीवी तो पहले से ही थे कोई भी पीछे नहीं रहा बुद्धिजीवी (तथाकथित) तो बुद्धिजीवी, मूर्खों (तथाकथित) ने भी अपनी उपस्थिति दर्ज़ करायी लोगों ने जमकर लिखा, थोड़ा बहुत पढा और प्रसार के हर माध्यम का भरपूर प्रयोग किया लोग तो लोग बड़ी-बड़ी कम्पनियों ने भी इसका सहारा लिया हिन्दी वाले अब किसी चीज में पीछे नहीं रहते वरन हाथ धोकर पीछे पड़ जाते हैं अबस्वांत: सुखायतो कुछ होता नहीं यह तुलसीदास सरीखे लोगों को शोभा देता होगा जो मात्र अपने सुख के लिये लिखते थे आज के लोग और खासकर लेखक-कवि इतने स्वार्थी नहीं अब तो ऐसे लोग अगर कुछ लिखते हैं तो स्वयं उसका सुख लूटने से पहले लोगों में लुटा देना चाहते हैं फ़िर तो जब -मेल से सूचित करने के बाद भी लोग ब्लाग पर नहीं जुटते तो फ़िर फोन और अंतत: घर पहुंचकर इत्तला दे देते हैंभाई (अथवा बहन ), मैंने कुछ अद्भुत लिखा है, पढ लो अन्यथा दोष मत देना कि मित्र (भाई अथवा बहन भी ) होकर छुपा ले गये अब सामने वाला भी सिर्फ़ पाठक थोड़े ही है, वह आपको अपने कम्प्यूटर पर बिठाकर दस-पन्द्रह पृष्ठों का अपना ताज़ा लेख पढवा देता है आदान-प्रदान में कोई भी पीछे नहीं अब हताश-पताश हो जब आप लौटते हैं तभी विचार कर लेते हैं कि अबकी बीस-पच्चीस पृष्ठों का ब्लाग लिखकर उसके ब्लाग पाठ का एह्सान उतार दूंगा यह क्रम चलता रहता है समाज, साहित्य और संस्कृति दिन दुना रात-चौगुना मोटे पर मोटे होते जा रहे हैं

            फेसबुक से पहले उनके बड़े भाईऔरकुटसे मिलते चलते हैं जबऔरकुटअवतरित हुआ था तो लोगों ने उसे हाथों-हाथ लिया था जी भरकरस्क्रैपलिखते और एक दूसरे को पढते-पढवाते कई बार दूसरों परस्क्रैपलिखने के लिये दबाव भी डालते लोग उसेस्क्रैपक्यूं कहते थे यह आजतक मेरी समझ में नहीं समा सका मैं पूरे समयऔरकुटका सदस्य बनने के सपने देखता ही रहा कि तब तक हल्ला मचा किफेसबुक गया है लोग जोऔरकुटके चरणों में बैठे थे वे उसके खड़ाउं छोड़करफ़ेसबुककी ओर लपके राजा भरत को श्रीराम मिले आंसुओं की धार निकल पड़ी लोग निहाल हो गये (बाद में कुछ लोग बेहाल भी ) जितनी फोटोऔरकुटपर डली थीं, उतरने लगीं और रातो-रातफेसबुकपर सजने लगीं ऐसा राज्याभिषेक किसी काल में किसी का भी नहीं हुआ आधी से अधिक दुनिया आजफेसबुकपर अपनी उपस्थिति से स्वयं कृतार्थ हो और दूसरों को भी कर रही है



            कुछ लोग सुबह आंख मलते, बिना दांत मांजे, चश्मा धारण कर कम्प्यूटर के आगे बैठ जाते हैं अपनी नहीं तो उधार ली हुई सूक्तियों के साथ लिखते हैंसुप्रभात आजकल फेसबुक पर सन्देश देने के लिये भी सुबह उठना हो जाता है बड़े-बुजुर्ग जो कह कहकर थक गये आज वह फेसबुक की कृपा से सम्भव हो पा रहा है स्नान-ध्यान, नाश्ता-पानी करते समय भी सोचते रह्ते कि कुछठोसलिखना होगा लेकिन इतना भर लिख पाते हैंआफ़िस जा रहा हूं आफ़िस पहुंच कर लिखते हैंआफिस पहुंच गया हूं दिल लग नहीं रहा दिल लगे भी तो कैसे, काम दिल लगाने की चीज तो है नहीं फ़िर लिखते हैंव्यस्त हूं (यह पता नहीं चलता कि काम में अथवा…) देखते-देखते दोपहर हो जाता है समय रुका तो रहता नहीं लिख देते हैंलंच करने जा रहा हूं जल्दी-जल्दी में लंच करने के बाद लिखते हैंआहघर का भोजन, मजा गया और मां की याद भी गयी (भोजन पत्नी ने बनाया था वैसे ) लंच के बाद भरपेट अलसाते हुए फ़िर लिखते हैंआफ़िस के बाहर का नज़ारा अद्भुत है धूप है तो धूप, बरसात है तो बरसात और जो कुछ नहीं तो धूप अथवा बरसात अथवा दोनों की उम्मीद कुछ और नहीं सूझता तो लिख देते हैंआज ही के दिन पचास साल पहले जन्मे थे, अथवा शादी हुई थी (नौकरी लगने की बात अनदेखा कर देते हैं ) अगर ऐसा कुछ व्यक्तिगत नहीं हुआ था तो किसी किसी महान हस्ती का कुछ कुछ हुआ ही होगा, वही लिखकर कभी नमन तो कभी अफ़सोस कर लेते हैं समय फ़िर गुज़रने लगता है घड़ी-घड़ी की खबर दर्ज़ करते रहते हैं  - कहीं चुनाव, तो कभी क्रिकेट, कोई साहित्यिक-सांस्कृतिक समारोह, गली-गली, शहर-शहर, देश-विदेश के समाचार पढते और फेसबुक पर डालते रहते हैं यह सब निस्वार्थ-निष्काम भाव से बिना कोई फल की आकांक्षा के करते रहते हैं ठीक वैसे ही जैसा कि श्रीकृष्ण ने महाभागवद्गीता में कहा है अर्जुनजी को तो गीता के उपदेश के बाद ज्ञान मिला था लेकिन इनको तो फेसबुक ने मुक्ति-मोक्ष का मार्ग दिखला दिया ऐसे ही कितने मुमुक्षू रात-दिन फेसबुक के माध्यम से रात-दिन अपनी साधना में लीन रहते हैं बिना लिखे-पढे अगर आधा घंटा निकल जाय (कोई बहुत ही ज़रूरी काम जाये तो ही ) तो लगता है कि सांस अटक गयी जीवन लक्ष्य से भटक गया दम घुंट गया वह जीवन भी क्या जहां अभिव्यक्ति नहीं और वह अभिव्यक्ति भी क्या जहां साझा करने, सुनने-सुनाने और पढने-पढवाने की सुविधा नहीं शाम हो जाती है सुबह और दोपहर के बाद शाम ही होती है लेकिन वह बताना नहीं भूलते शाम को चलते हुए लिख जाते हैंथक गया हूं (सम्भवत: काम की जगह शाम का इन्तज़ार करते-करते) घर आकर चहककर लिखते हैंशाम की चाय के साथ आप सबको एक बार फ़िर नमस्कार दिन भर की थकान शाम को फेसबुक पर आकर मिट जाती है  

पुरानी डायरी से कुछ जुमले निकालकर फेसबुक पर डाल देते हैं और मित्रों से प्रतिक्रिया लेने देने में शाम गुज़रने लगती है खाने जा रह हूंऔरखा चुकाके बीच का समय मुश्किल से कटता है कि फिर सन्देश देते हैंमित्रों मैं गया यही करते-करते आधी रात हो जाती है तो लिखते हैंपता ही नहीं चला कि समय गुज़र गया। रात के बीते जाने पर एक-आध पंक्ति लिखना भूलते हुए कह जाते हैंशुभ रात्रि, कल फ़िर मिलेंगे।.. सच सोशल नेटवर्किंग ने आदमी को जीवन में एक नया आयाम दे दिया है। कल तक जो ज़िन्दगी से बोर हो गये थे आज उनमें एक नई ताज़गी भर आयी है सोचता हूं कि यह सब इतनी देर से क्यों हुआ कितनी पीढियां बोर हो-होकर चल बसीं खैर, आज याद करने वाले उन्हें भी यहां भर-भर कर याद कर रहे हैं



            कुछ लोग थोक में मित्रता करते हैं और बताते भी चलते हैं कि आ्ज उनके मित्रों की संख्या इतनी हो गयी दर्जन की गलियों से शुरु होकर, सैकड़ों और हजारों के चौराहों को पार कर वे लाखों की दौड़  में लगे हैं बिना रूके, हांफे और थके अगर जो यह सोशल नेटवर्किंग पहले यानि बहुत पहले होता तो कोई महाभारत अथवा विश्वयुद्ध नहीं होता मित्रों में भी भला लड़ाई होती है ? लेकिन ऐसा नहीं, जैसा कि मित्रों की संख्या में बाढ़ आयी है, उनमें  सभी मित्र ही नहीं होते कुछ तो आपके पक्के दुश्मन हैं लेकिन मित्र बने बैठे हैं कहा भी गया है कि किसी से से अच्छी शत्रुता निभानी हो तो पहले उसके विश्वासी मित्र बनो जितनी दुश्मनी आप दोस्त बनकर कर सकते हैं उतनी दुश्मन बन कर नहीं यह मैं नहीं कह रहा हूं यह तोवसुधैव शत्रुममें विश्वास करने वाले शत्रुवादियों का उद्घोष है ऐसे लोग गली-गली, नुक्कड़ों में घुसकर लोगों के मित्र बनकर उनकी आलोचना-प्रताड़ना करते हैं ऐसे लोग कुछ खास सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, धार्मिक सिद्धांतों को दूसरों पर थोपना चाहते हैं थोप तो वैसे अच्छे-अच्छे लोग देते हैं तो ये इतने गये-गुज़रे भी नहीं अन्तत: लोग उन्हेंअमित्र’ (अनफ़्रेंड) कर देते हैं यानि मित्रता महामंडली (चार यार से अधिक बड़ी मंडली ) से निकाल देते हैं ये निस्काषित चाणक्य दूसरे रूप धारण कर (नाम और लौग इन) फ़िर उनके किले में सेंध लगाना शुरु कर देते हैं ऐसे मामलों में खुफ़िया एजेंसियों ने भी अपनी दक्षता दिखलायी है एक रिपोर्ट के अनुसार आपराधिक गतिविधियों को पहले धर-दबोचने के लिये खुफ़िया एजेंट भी आपके मित्र बन कर आप पर नज़र रखते हैं



जब आप किसी के मित्र बनते हैं तो उसकी तस्वीरों, उसके विचारों और संदेशों को पसंद करना आवश्यक होता है यही नहीं कुछ लोगों का कहना है पसंद तो कोई भी (दूर-दराज वाले भी ) लेता है, मित्र के लिये तो अच्छे-अच्छेकमेंट’(प्रतिक्रिया) देना ज़रूरी है ये कुछ स्व-निर्धारित आचरण (कोड आफ़ कंडक्ट) हैं जिनका पालन सोशल नेटवर्किंग के लिये आवश्यक है अन्यथा आपके मित्र आप से असंतुष्ट हो जायेंगे और बात आपको मित्र-सूची से बाहर कर देने तक जायेगी जहां मित्रता सहज उपलब्ध है वहीं उसके बने रहने की कोई गारंटी नहीं है दूसरी तरफ़ लोग हैं जो कुछ भी पसंद (लाईक) करते हैं प्रतिक्रिया (कमेंट) में कुछ लोग कविता भी लिख देते हैं कुछ लोग प्रतिक्रिया स्वरूप शालीनता का सरोवर ही बहा देते हैं यह अक्सर एक दूसरे के प्रति, अथवा किसी महान हस्ती के लिये होता है अब सामने वाला आपकी तारीफ़ करे तो आप कैसे ना करें रही बात बड़े लोगों की तो उनकी कृपादृष्टि पाने के लिये तो लोग कुछ भी करने को तैयार रहते हैं और बड़े लोग इस रहस्य को भली-भांति जानते भी हैं इतना विनम्र और विनीत तो तुलसीदास भी नहीं हुए कभी (उन्होंने दास्य भाव में अधिक लिखा है ) कुछ लोग प्रतिक्रिया देते हुए अपनी कथा-कविता कह देते हैं, लिन्क प्रदान करते हैं और कभी तो आग्रह और कभी तो आदेश (अपने कद और वरीयताक्रमानुसार) देते हैं कि फ़लां जगह पधारें और अपने विचार दें अगर जो आप ऐसा करे तो परिणाम के लिये तैयार रहें सोशल नेटवर्किंग के मित्र इस मामले में थोड़े असहिष्णु अवश्य हैं अब मित्र हैं तो क्या उम्र भर बिना कुछ लिये दिये ही निभाते फिरेंगे ? अब कुछ लोगों की विवशता भी देखिये कि आखिरतारीफ़ करेंभी तो कब तक ? उनके हजारों मित्र और दसों हजार संदेशकिसे पढे, किसे देखें, किसे छोड़े, किसको पसंद करें और किस-किस पर कमेंट करें डिजिटल कैमरा आने के बाद (और अब तो प्राय: हर मोबाईल फोन में भी ) तस्वीर खींचने में कन्जूसी नहीं करनी पड़ती लोग, स्थान, परिवेश स्थिर ही रहते हैं लेकिन कैमरे के बीस-पच्चीस क्लिक हो जाते हैं लोग तस्वीरों को कैमरे से सीधे इन्टरनेट अथवा सोशल नेटवर्किंग के स्थानों पर डाल देते हैं कुछ तस्वीरों में अन्धेरा छाया रहता है तो कुछ में सूरज की तेज रोशनी के कारण सब कुछ सफ़ेद हो जाता है तो कुछ में यह कहना कठिन होता है कि तस्वीर किसकी हैआदमी की अथवा कुत्ते की या सड़क के किनारे घास चर रही बकरी की बहुत तस्वीरें उलटी टंगी हैं । लेकिन साझा करने की आतुरता में इन सब पर ध्यान देने का अवकाश नहीं लोग खुद समझ लेंगेअथवाआज के समझदार लोगकी उम्मीद में हजारों तस्वीरें आपके अवलोकनार्थ और प्रतिक्रिया के लिये उमड़ पड़ी हैं ध्यान रहेपसंद करना काफ़ी नहीं, कुछ कुछ तो लिखना ही पड़ेगा आखिर मामला मित्रता का है ! ऐसी ही कितनी तस्वीरें जो वर्षों पुराने अल्बम से निकल कर आज सोशल नेटवर्किंग के सौजन्य से इंटरनेट का मुंह देख पा रही हैं कोई अपने गांव की, बचपन की, बूढ़े माता-पिता अथवा गुजरे दादे-परदादे, स्कूल, कालेज, आफ़िस, गली-मुहल्ला जो जहां कहीं से जो कुछ भी निकाल पा रहा है, खोज पा रहा है पूरी श्रद्धा के साथ सोशल नेटवर्किंग को अर्पित कर रहा है लोग प्रेमाकुल हैं, आंख से आंसू निकल रहे है, अपने पराये सबको याद कर रहे हैं जिनको बरसों पहले भुला दिया था मानवता के लिये यह एक अभूतपूर्वा घड़ी है कहीं कुछ मिला तो लोग अपने कालेज के दिनों के प्रवेश-पत्र अथवा परिचय-पत्र से फोटो निकाल कर उसको सोशल नेटवर्किंग स्थानों पर चिपका दिया उनके मित्र अभिभूत हो गये किसी ने कहाबचपन से ही होनहार लगते थे कुछ ने कहाकितना बदल गये हो कितनों ने स्टूडियो और फोटो खींचने वाले की जानकारी मांगी (ताकि वे उनको सम्पर्क कर सकें !) देखते-देखते वे कितनों के प्रेरणास्रोत बन गये अब तो लोग सोशल नेटवर्किंग स्थानों पर डालने हेतु घर के कोने-कोने में फोटो खिंचा रहे हैं  कभी मां से सटकर तो कभी बाबा के चरणों में, कभी आंगन में तो कभी छत पर, कभी घर की बिल्ली के साथ तो कभी गली के कुत्ते के साथ और नहीं तो अपने शहर की सब्जी मंडी अथवा निर्जर पार्क में ही खड़े हो गये और दर्जन भर तस्वीरें ले लीं कहीं कोई पोखर (जमा पानी अथवा नाला भी चलता है ), झील, बाज़ार, मंदिर-मस्ज़िद, चर्च, सार्वजनिक महत्त्व की वस्तु अथवा स्थान नहीं बचा जहां लोगों ने तस्वीरें नहीं खिंचवायीं। यहां तक कि लोग अब घर में खाना छोड़ रेस्त्रां जाने लगे ताकि वहां की तस्वीरें डाल सकें घर में भी खाना बनाया तो सम्बन्धियों और अतिथियों को खिलाने से पहले कैमरे का फ़्लैश चमक उठता है पहाड़ों और तीर्थों का तो कहना ही क्या, लोग अपनी सामर्थ्य से बाहर आकर भी यात्रा करने लगे ताकि सोशल नेटवर्किंग पर अपनी उपस्थिति दर्ज़ करा सकें बिना सामाजिक रहे जीवन का मूल्य ही कितना हैं बहन भाई को टीका तभी लगायेगी जब कैमरा सामने होगा, पति-पत्नी एक दूसरे को देख तभी मुस्कुरायेंगे जब उस अन्मोल घड़ी को कैद करने के लिये कोई कैमरा तैनात होगा मां-बाबूजी के चरणों के तरफ़ हाथ बढे हैं लेकिन आंखें कैमरे पर टिकी है कैमरा सामने हो तो बच्चे भी प्यारे लगते हैं



हर तरफ़ समाजवाद छाने लगा हैकोई अमीर, नहीं कोई गरीब नहीं, कोई हिन्दू नहीं कोई मुसलमान नहीं हिन्दू मुसलमान कोईद मुबारककहता तो मुसलमान हिन्दू कोदिवाली शुभ होकहने लगे हर दिन बिना किसी भूल के दुनिया के सारे महापुरुष याद किये जा रहे हैं और लोग उनको श्रद्धा सुमन अर्पित कर रहे हैं अब किसी का जन्म दिन याद रखने की आवश्यकता नहींसारे रिश्ते-नाते, मित्र, आफ़िस आदि के लोग एक दूसरे से सोशल नेटवर्किंग से जुड़े हैं सोशल नेटवर्किंग आपको याद दिला रहा है कि कब फ़लां का जन्मदिन अथवा कोई अमुक महत्त्वपूर्ण सालगिरह है लोग बिना भूले-चुके मुबारकबाद और बधाईयां भेज रहे हैं लोग पढ-पढ कर अभिभूत हो रहे हैं बगल के कमरे से भाई बहन को जन्म दिन की बधाई सोशल नेटवर्किंग साईट पर लिख रहा है क्योंकि बहन ने कहा था मुंह से अब क्या कहना जो कहना है अब सोशल नेटवर्किंग स्थान पर कहो-लिखो तभी तो पता चलेगा कि लोग उसे कितना पसन्द करते हैं माता-पिता भी बच्चों को आशीष सोशल नेटवर्किंग पर ही दे रहे हैं हर तरफ़ उत्साह, उमंग और उछाल है भावनाओं का सागर उमड़ पड़ा है , अभिव्यक्ति की ज्वालामुखी फट पड़ी, प्रदर्शन की ‘सुनामी’ आयी है सब लोग बह रहे हैं , कोई थमना नहीं, रूकना नहीं , सोचना-समझना नहीं ….

यह सब लिखते हुए मुझे लगता है कि मैं समय के साथ कदमताल नहीं कर पा रहा हूं मित्रों की, सम्बंधियों की आशाओं के अनुरूप मैं ढ़ल नहीं पाया मैं हर दिन, हर पल पिछड़ता जा रहा हूं सामाजिकता की इस प्रलयकारी बाढ़ में मैं एक तिनका-सा बहा जा रहा हूं, डूबता-उतराता, कहां, किस ओर कुछ पता नहीं ..



उम्मीद है कि मैं भी इन कड़ोरों-अरबों की तरह एक दिन समाजिक बन पाउंगा



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