(1)
हुस्न के जो ये नज़ारे नहीं होते
हम ये दिल कभी हारे नहीं होते।
चढ जाते जो सबके होठों पर
वो गीत फिर कंवारे नहीं होते।
तमाम नफ़रतों के बलबलों में
इश्क करने वाले सारे नहीं होते।
मात खायी है हमने तो हर्ज़ नहीं
प्यार करने वाले बेचारे नहीं होते।
जो जगमगाते हरदम उंचाई से
सब के सब सितारे नहीं होते।
दीखते दूर से मौजों के पार जो
ठहरे हुए सब किनारे नहीं होते।
इस दिल को यकीन ही था कब
कि लूटने वाले सहारे नहीं होते।
देना था दगा एक रोज आखिर
दोस्त, काश हम तुम्हारे नहीं होते।
(2)
ठोस भी कभी तरल हो जायेगा
मसला यह भी हल हो जायेगा।
फ़ागुन का रंग जो चढा कभी
चैती बैरागी विकल हो जायेगा।
सच एक था और रहेगा एक पर
अमृत तो कभी गरल हो जायेगा।
पहले से जो तुमने की तैयारियां
जीवन का पर्चा सरल हो जायेगा।
पाकर संग फूलों का एक दिन
कांटा भी कोमल हो जायेगा ।
(3)
हादसों का आशियाना आदमी
खुद से हुआ बेगाना आदमी ।
हर हसरत आखिरी थी लेकिन
हसरतों का ही निशाना आदमी।
दो फूल खिल उठे दामन में कभी
कांटों भरा बाग पुराना आदमी ।
चाहे रोते रहे या कि हंसते रहे
छेडता रहा नया तराना आदमी ।
लोग आते रहे, लोग जाते रहे
बनता रहा अफ़साना आदमी ।
घर बनते रहे हर शहर में लेकिन
बिखरता हुआ पर ठिकाना आदमी।
(4)
नियति एक कुशल व्यापारी है
काम की खूब समझदारी है।
बेचती है खुशियां गिन गिनकर
फिर भी दुनिया गम की मारी है।
मिलते हैं लोग गले सरहद पर
घर में बंटने की पर बीमारी है।
अंधेरा हो घना भले जितना
जुगनू की चमक पर भारी है।
दिखावे का गुलशन है उनका
सच्ची अपने मन की क्यारी है।
(5)
सेवा का वो अवसर चाहते हैं
बदले में कार व घर चाहते हैं।
भले न हो पाय इस्तेमाल धन का
नये साल में नया कर चाहते हैं।
खुद घूमें बुलेट-प्रूफ़ कार में भले
देश हेतु जनता का सर चाहते हैं।
ढह रही सुरक्षा की दीवारे पर
ईंट के जबाब में पत्थर चाहते हैं।
चमक जायेगा एक दिन वतन अपना
चुनावी वादों का असर चाहते हैं ।
उडाना चाहते उंचे आकाश में
परिन्दे पर वे बे-पर चाहते हैं ।
(6)
आज वन से हरापन गया
कि जीवन से नयापन गया।
रिश्तों की बाढ आयी तो
उनका पर अपनापन गया।
घर में बने कमरे इतने
कि आंगन का खुलापन गया।
मिलाकर हिंदी में अंग्रेजी
बोली का पिछ्डापन गया।
प्रसाद की कामायनी गयी
निराला का निरालापन गया।
उंचे समाज में रहने वाले
बच्चों का तोतलापन गया।
भेडियों की बस्ती में आये
हाथी का मतवालापन गया।
(7)
बचपन का निर्मल मन गया
सोच से आज यौवन गया ।
छतें पडी शहर में इतनी कि
सबके सर से गगन गया ।
बहुत पाने के प्रयास में
बचा खुचा भी धन गया ।
सबका अपना-अपना कमरा
साझे का आंगन गया ।
हम हुये धर्मनिर्पेक्ष इतने
आरती गयी, हवन गया।
मेल जोल में वे आगे गये
तेरे मेरे में यह वतन गया।
आंख रह्ते अंधे हुये ही
उसपर मन का नयन गया।
सर्वाधिकार (Copyright) - अमरेन्द्र कुमार
Wednesday, October 7, 2009
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bahut hi sundar gazal
ReplyDeleteबेहतरीन गज़लो के लिये बधाई
ReplyDeleteअमरेन्द्र जी बहुत प्यारी गजलें कहीं हैं आपने। बधाई।
ReplyDeleteएक सुझाव देना चाहूंगा कि आप एक बार में यदि एक ही रचना प्रकाशित करें, तो ज्यादा अच्छा रहेगा। इससे पाठक आपकी रचनाओं का ज्यादा बेहतर तरीके से आनंद ले सकेंगे।
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बोटी-बोटी जिस्म नुचवाना कैसा लगता होगा?
उम्दा ग़ज़लों के लिए आपको बधाई !!
ReplyDeleteअच्छे खयाल हैं अमरेन्द्र। हर ग़ज़ल अच्छी लगी। इनकी बहर एक बार देख लें।
ReplyDeleteAmrendraji
ReplyDeleteaapki gazals mein ek navneetam soch ka aakar sulgta hua dikhai deta hai..aam se hatkar..choti beher mein ati uttan kasavat ke saath bune hue sher hai
सबका अपना-अपना कमरा
साझे का आंगन गया ।
bahut uttam rachnatmak anubhuti ke liye shubhkamanyein.
Devi Nangrani
जो जगमगाते हरदम उंचाई से
ReplyDeleteसब के सब सितारे नहीं होते।
दीखते दूर से मौजों के पार जो
ठहरे हुए सब किनारे नहीं होते।
बाकी के सभी ग़ज़ल भी बेहतरीन है..
- सुलभ
भाई जी बहुत अच्छी गज़लें कही हैं बधाई स्वीकारें
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