पिछले कुछ दिनों हिंदी के तीन प्रमुख साहित्यकारों से सम्पर्क का सौभाग्य मिला - उदय प्रकाश जी, डा. कमल किशोर गोयंका जी और उषा प्रियम्वदा जी।
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मेरे लिखे एक ई-मेल के उत्तर में उदय जी ने लिखा -
Friday, May 1, 2009
प्रिय अमरेन्द्र जी,
आपका पत्र पाकर बहुत प्रसन्नता हुई . इस पत्र के माध्यम से आपसे परिचित होना भी सुखद था. आपका ब्लाग भी मैंने देखा. अब पेंगुइन से प्रकाशित आपका संग्रह पढ़ने की इच्छा जागृत हुई हैं. ज़ल्द ही मैं इसे प्राप्त करूँगा क्यों की वहां से मेरी भी ४-५ किताबें है.
और आप कैसे है? यह सचमुच बहुत सुखद हैं कि आप अपनी भाषा, देश और साहित्य से इतनी दूर रह कर भी जुड़े है.
शुभकामनाओं के साथ.
उदय प्रकाश
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मेरा भेजा ई-मेल -
2009/4/28
उदय प्रकाश जी,
नमस्ते !
आशा है कि आप सकुशल और सानंद होंगे।
आपके नाम से पहले मैं परिचित था और अब आपके ब्लाग को भी पढता रहता हूं। अच्छा लगता है। आपकी पुस्तकें पढने का बहुत मौका मिला नहीं है लेकिन "पीली छतरी वाली लड़की पाकिस्तान में" के अंग्रेजी अनुवाद की समीक्षा पढी तो आपके रचना-कर्म के सम्बंध में जानकारी मिली।
मैं अमेरिका में रहकर काम करता हूं। साथ ही हिंदी लेखन से भी जुडा हूं। मेरा पहला कहानी संग्रह "चूडीवाला और अन्य कहानियां" पेंगुइन इंडिया से २००७ में प्रकाशित हुआ है। आजकल ब्लाग भी लिखने का प्रयास करता हूं समय मिलने पर।
http://amarendrahwg.blogspot.com/
कभी अवकाश मिले तो देखें और अपने विचार दें।
शेष कुशल है।
सादर,
अमरेन्द्र कुमार
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उदय प्रकाश जी हिंदी के लब्ध-प्रतिष्ठित कथाकार और उपन्यासकार हैं। उनका अपना ब्लाग है अगर आप देखना और पढना चाहें -
http://uday-prakash.blogspot.com/
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डा. कमल किशोर गोयंका जी ने मेरी पुस्तक "चूडीवाला और अन्य कहानियां" पढने के बाद दिल्ली से मुझे फोन किया। थोडी देर बात करने के बाद मैंने उन्हें फोन किया और लगभग आधे घंटे हमारी बातचीत हुई। पुस्तक की प्रतिक्रिया स्वरूप उन्होंने कहा कि "चूडीवाला" एक सशक्त कहानी है और उसे वही लिख सकता है जो उस पृष्ठभूमि से परिचित है। हमारी चर्चाओं में आपसी परिचय के अतिरिक्त धीरे-धीरे बहुत कुछ शामिल हो गये - प्रवासी साहित्य, हिंदी-अंग्रेजी सम्बंध, भारत और विदेश (खासकर अमेरिका), हिंदी लघु पत्रिकाओं की वर्तमान दशा, विदेशों में हिंदी प्रसार, भाषा-लेखक-पाठक त्रयी आदि। उन सभी बातों का ब्यौरा तो अक्षरश: सम्भव नहीं लेकिन कुछ मुख्य बातों को प्रगट करना चाहूंगा। प्रवासी साहित्य को लेकर उनके विचार बहुत ही साकारात्मक हैं। अपने लेखों और वक्तव्यों के माध्यम से भी उन्होंने प्रवासी साहित्य को हरदम सराहा है और भारत के साहित्यकारों से उन्हें हिंदी साहित्य की मुख्यधारा से जोडने की अपील की है। बातचीत के प्रारम्भ में उन्होंने बताया कि प्रेमचंद साहित्य पर उनकी लिखी बाईस पुस्तकें हैं। वे सम्प्रति सेवानिवृत हैं और दिल्ली के साकेत कालोनी में निवास करते हैं। उन्होंने बताया कि वे वर्ष २००७ में न्यूयार्क में आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन में भाग लेने आये थे। उन्होंने मुझे कहा कि आप नियमित लिखते रहें और पुस्तकों का प्रकाशन भी नियमित कराते रहें। अच्छे लेखन के लिये ये आवश्यक शर्त हैं और इनपर ध्यान देना जरूरी है। भारत के बाहर बसे लेखकों के लिये उनका सुझाव है कि वे भारत की मुख्यधारा साहित्य का गहन अध्ययन करें। इसके लिये एक पुस्तक-क्लब की स्थापना का उन्होंने सुझाव दिया। इसके लिये सहयोग के रूप में भारत से पुस्तक भेजने की व्यवस्था का कार्यभार लेने की पेशकश भी उन्होंने की। उनका मानना है कि यह आने वाली पीढी के लिये भी भारत की संस्कृति से जोडने में कारगर साबित होगा। बातचीत के क्रम में मेरे बताने के बाद उन्होंने आश्चर्य व्यक्त किया कि "क्षितिज" के चार साल के प्रकाशन के बाद उनकों इस बात की जानकारी नहीं मिली। इस संदर्भ में उनकी जागरूकता और उत्सुकता देखकर मुझे बहुत अच्छा लगा। अंत में उन्होंने सम्पर्क में रहने का आग्रह किया जो आज के समय के लिये सुखद और समीचीन है। यह इसलिये भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि साहित्यकारों की दो पीढियों को जोडना या उनसे जुडना कम होता जा रहा है।
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उषा प्रियम्वदा जी ने मेरी पुस्तक की प्रतिक्रिया स्वरूप एक पत्र लिखा जिसका एक अंश यहां दे रहा हूं -
उषा प्रियम्वदा जी हिंदी की लब्ध-प्रतिष्ठित कथाकार-उपन्यासकार हैं और अमेरिका के मैडिसन, विस्कांसिन में रहती हैं।
Sunday, August 23, 2009
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