समीक्षकः देवी नागरानी
अहले-जमीं से दूर रहने पर उसी दूरी का अहसास, जिये गये पलों की यादें - जिनकी इमारतें खट्टे-मीठे तजुर्बों से सजाई गयी है, उन बीते पलों की कोख से जन्म लेती है सोच, जो इस नये प्रवासी वातावरण में अपने आप को समोहित करने में जुटी है। यहां की ज़िंदगी, आपाधापी का रवैया, रहन-सहन, घर और बाहर की दुनिया की कशमकश ! और कशकश की इस भीड़ में जब इन्सान ख़ुद से भी बात करने का मौका नहीं पाता है तो सोच के अंकुर कलम के सहारे खुद को प्रवाहित करते हैं, प्रकट करते हैं।
कहानी लिखना - एक प्रवाह में बह जाना है। कल्पना के परों पर सवार होकर जब मन परिंदा परवाज़ करता है तो सोच की रफ़्तार अपने मन की कल्पना को इस तरह ख़यालों की रौ में बहा ले जाती है कि कल्पना और यथार्थ का अंतर मिटता चला जाता है। ऐसा कब होता है, कैसे होता है, क्यों होता है - कहना नामुमकिन है। लेखक जब ख़ुद अपनी रचना के पात्रों में इस कदर घुल-मिल जाता है तो लगता है एक विराट संसार उसके तन-मन में संचारित हुआ जाता है और फिर वहां मची हलचल को, उस दहकती दशा को कलम के माध्यम से अभिव्यक्त किये बिना उसे मुक्ति नहीं मिलती.
हर इन्सान के आस-पास और अन्तर्मन में एक हलचल होती है। सोचों की भीड़, रिश्तों की भीड़, पाबंदियों की भीड़, सुबह से शाम, शाम से रात, बस दिन ढलता है, सूरज उगता और फिर ढल जाता है और जैसे जैसे मानव-मन अपने परिवेश से परिचित होकर घुलता मिलता जाता है तो फिर एक अपनाइयत का दायरा बनने लगता है; मन थाह पाने लगता है।
जी हां ! कुदरत के सभी तत्त्वों के ताने-बाने से बुनी हुई ऐसी कहानियां, आधुनिक समाज में बदलते जीवन मूल्यों को रेखांकित करती हुई हमसे रूबरू हो रही है, श्री अमरेन्द कुमार के कहानी संग्रह "चूड़ीवाला और अन्य कहानियां" के झरोखों से। अमरेन्द्र जी का परिचय देना सूरज को उंगली दिखाने के बराबर है। संयुक्त राज्य अमेरिका से निकलने वाली त्रैमासिक हिंदी पत्रिकायें क्षितिज और ई-विश्वा के कुशल सम्पादक रहे हैं. उनकी कहानियों में एक ऐसी दबी चिंगारी पाई जाती है जो पाठक को अपनी आंच की लपेट में लेने से बाज नहीं आती। इस संग्रह में आठ कहानियां है जिनमें मेरी पसंदीदा रहीं - मीरा, चूड़ीवाला, चिड़िया, एक पत्ता टूटा हुआ, ग्वासी, रेत पर त्रिकोण ।
'मीरा' अमरेन्द्र जी की एक लम्बी कहानी है। एक तरह से कोई जिया गया वृतांत, जिसमें विस्मृतियों की अनेक गांठें परस्पर खुलती रहती है। इस संग्रह की भूमिका में उनके ही शब्दों में परतें खोलती हुई कलम कह उठती है - " कहानी मनुष्य की अनुभूत मनोदशाओं का एक पूरा दस्तावेज़ है। यह एक ऐसी दुनिया है जहां सब कुछ अपना है - पात्र, परिवेश, परिस्थ्ति, आरम्भ, विकास और परिणति " आगे उनका कथन है -" कहानी का अंत कभी नहीं होता, उसमें एक विराम आ जाता है। एक कहानी से अनेक कहानियां निकलती है.."
सच ही तो है ! उनकी कहानियां अपने जिये अनुभवों का एक लघु धारावाहिक उपन्यासिक प्रयास प्रस्तुत करती है जो शब्दों के सैलाब से अभिव्यक्त होता है जिसमें कहानी का किरदार, अपने आस- पास का माहौल, रहन- सहन, कथन-शैली से जुड़ते हुए भी किताना बेगाना रहता है। एक विडंबनाओं का पूरा सैलाब उमड़ पड़ता है कहानी 'मीरा' के दरमियान जिसमें समोहित है आदमी की पीड़ा, तन्हाईयों का आलम, परिस्थितियों से जूझते हुए कहीं घुटने टेक देने की पीड़ा, उसके बाद भी दिल का कोई कोना इन दशाओं और दिशाओं के बावजूद वैसा ही रहता है - "कोरा, अछूता, निरीह, बेबस और कमजोर"।
"मां नहीं रही.." खबर आई, समय जैसे थम गया, सांस अटक गयी, आंसू निकले और साथ में एक आर्तनाद" लेखक के पात्र का दर्द इस विवरण में शब्दों के माध्यम से परिपूर्णता से ज़ाहिर हो रहा है। आगे लिखते है " सब कुछ लगा जैसे ढहने, बहने, गिरने और चरमराने और मैं उनके बीछ दबता, घुटता, और मिटता चला गया " नियति की बख़्शी हुई बेबसी शायद इन्सान की आखिरी पूंजी है। मन परिन्दा सतह से उठकर अपनी जड़ों से दूर हो जाता है, लेकिन क्या वह बन्धन, उस ममता, उस बिछोह के दुख से उपर उठ पाता है ?
अतीत की विशाल परछाईयों में कुछ कोमल, कुछ कठोर, कुछ निर्मल, कुछ म्लान, कुछ साफ, कुछ धुंधली सी स्मृतियां, टटोलने पर हर मानव मन के किसी कोने में सुरक्षित पायी जाती है। दर्द के दायरे में जिया गया हर पल किसी न किसी मोड़ पर फिर जीवित हो उठता है । अमरेंद्र जी की क़लम की स्याही कहानी की रौ में कहती-बहती इसी मनोदशा से गुज़रे 'मीरा' के जीवन को रेखांकित कर पाई है, जो बचपन, किशोरावस्था से जवानी और फिर उसी उम्र की ढलान से सूर्योदय से सूर्यास्त तक का सफ़र करती है। कहानी में अमरेन्द्र ने अनुरागी मन के बंधन को खूब उभारा है जहां मीरा की सशक्तता सामने ज़िन्दा बनकर आती है - वहीं नारी जो संकल्पों के पत्थर जुटाकर, अपनी बिख़री आस्थाओं की नींव पर एक नवीन संसार का निर्माण करती है। मानवीय संबंधों की प्रभावशाली कहानी है 'मीरा' !
उम्र भी क्या चीज है - बदलते मौसमों का पुलिन्दा ! शरीर और आत्मा का अथक सफ़र जहाँ हर मोड़ पर एक प्रसंग की परतें खुलती हैं, वहीं दूसरे मोड़ पर एक अन्य कथा को जन्म देती है। जीवन के परिवेश के विविध रंगों के ताने-बाने से बुनी ये कहानियां कहीं प्रकृति के समुदाय के प्रभावशाली बिंब सामने दरपेश कर पाती है, कहीं चाहे अनचाहे रिश्तों की संकरी गलियों से हमें अपना अतीत दोहराने पर मजबूर करती है। कहानी 'चूड़ीवाला' एक और ऐसी कहानी है जिसका मर्म दिल को छू लेता है। इसके वृतांत में 'सलीम चाचा' नामक चूड़ी बेचनेवाले किरदार का ता-उम्र का सफ़र और सरमाया है जो उन्होंने बख़ूबी निभाया है सामने आया है, जिसने बालावस्था से वृद्धावस्था तक हर चौखट की शान को अपनी मान-मर्यादा समझा। एक मोड़ पर आकर उन्हें यह अहसास दिलाया जाता है कि "घर की बहू बेटियाँ उनकी बेची चीज़ों की खरीदार हैं और वे फ़कत बेचनेवाले" । इन्सान के तेवर भी न जाने कब मौसम की तरह बदल जाते हैं ! कभी एक ही चोट काफ़ी होती है बिखराव के लिये। ऐसा ही तूफान उमड़ा सलीम चाचा के मन में और वही उन्हें ले डूबा। परस्पर इन्सानी रिश्तों का मूल्यांकन हुआ जिसमें एक अमानुषता का प्रहार मानवता पर भारी साबित हुआ।
शैली और शिल्प का मिला जुला सरलता से भरा विवरण कहीं-कहीं अमरेन्द्र जी की कल्पना को यथार्थ के दायरे में लाकर खड़ा करता है - एक चलचित्र की तरह उनकी कहानी 'चिड़िया' में। जिसमें एक मूक गुफ़्तार होती है उस बेज़ुबान चिड़िया और कहानी के मूल किरदार के बीच; जहां एक नया रिश्ता पनपता है। ऐसा महसूस होता है कि स्वयं को सबसे विकसित प्राणी मानने वाले मनुष्य को भी अपने परिवेश से और बहुत कुछ सीखना बाकी है. एक संबंध जो मानव मन को एक साथ कई अहसासात के साथ जोड़ देता है, उस पल के अर्थ में अमरेन्द्र जी की भाषा ज्ञानार्थ को ढूंढ रही है, अपनी -अपनी कथा कहते हुए. जो सीमाओं की सीढ़ियाँ पार करते हुए शब्दावली की अनेक धाराओं की तरह निरंतर कल-कल बह रहीं हैं, उस चिड़िया के आने और न आने के बीच की समय गति में मानवीय मन की उकीरता, उदासी, तड़प, छटपटाहट शायद कलम की सीमा से भले परे हो, पर मन की परिधि में निश्चित ही क़रीब रही है. कहना, सुनना और सुनाना शायद इसके आगे निरर्थक और निर्मूल हो जाते हैं. रिश्ते में एक अंतहीन व्यथा-कथा शब्दों से अभिव्यक्त होकर मन के एक कोने में अमिट छाप बन कर बस जाती है.
सशक्त भाषा, पुरसर शैली और क़िरदार की संवाद शक्ति, शब्दों की सरलता इन कहानियों को पठनीय बनाती है. शब्द शिल्प की नागीनेदारी उन्हें और भी जीवंत कर देती है. कहानियों के माध्यम से लेखक अपने ही मन की बंधी हुई गांठें और मानव-मन की परतों को भी उधेड़ रहे हैं, उदहारण के लिए कहानी 'गवासी' ही लें. ज़मीन से जुडी यादें हरेक शख़्स की यादों के किसी हिस्से पर अधिकार रखती है और इंसान चाहकर भी ख़ुद को उन अधिकारों से वंचित नहीं रख पाता. ऐसी ही नींव पर ख़ड़ी है गवासी-एक इमारत जो स्मृतिओं के रेगिस्तान में अब भी टहलती है, बीते हुए कल के 'आज' भी जिसके आँगन में पदचाप किये बिना चले जाते हैं- जैसे किसी बुज़र्ग के फैले हुए दामन में, जो अपने परिवार को बिखरने से बचाने के लिए अपने अंत को टाले हुए है.
इस शैली के प्रवाह पर सोच भी चौंक पड़ती है, ठिठक कर रुक जाती है . "मृत्यु तो जैसे आ गयी, लेकिन जीवन ने जैसे आत्म-समर्पण करने से मना कर दिया हो...हाँ ऐसी ही है "गवासी" आश्चर्य चकित रूप में ख़ुद से जोड़ने वाली कहानी...कहानी कम..वृतांत ज़ियादा.
"एक पत्ता टूटा हुआ" काफ़ी हद तक मौसमों के बदलते तेवर दर्शाता हुआ वृतांत लगा. जो हवाओं के थपेड़ों के साथ जूझते हुए सोच की उड़ानों पर सवार होकर घर से दूर, मंजिल तक का सफ़र तय कर पाया है.
वो दर बदर, मकाँ बदर, मंजिल बदर हुआ
पत्ता गिरा जो शाख से जुड़ कर न ज़ुड़ सका
कथा में हास्य-रस का स्वाद भी ख़ूब है. एक पत्ता अपने-अपने जीवन के हर पहलू का बयाँ कर रहा है, स्नेह के छुहाव का, प्यार की थपथपी का, औरों के पावों तले रौंदे जाने पर चरमराहट का, किताबों की कैद से रिहाई पाने के बाद ठण्ड के अहसास का, बड़ा ही सहज और रोचक प्रस्तुतीकरण है. लेखक की यह ख़ूबी, पाठक को अपने साथ बाँध रखने की, अपने आप में एक मुबारक अस्तित्त्वपूर्ण वजूद रखती है. जहाँ उम्र भर का अनुभव पल में सिमट रहा हो, वहीं पलों की गाथा ता-उम्र के सफ़र में भी संपूर्ण नहीं होती. रेखांकित की गई विषय-वस्तु सजीव, हास्य-रस में अलूदा एक पत्ते की आत्मा-कथा का चित्रण अति प्रभावशाली सिलसिले की तरह चलता रहा.
कहानी "रेत का त्रिकोण" मानव- मन की दशा और दिशा दर्शाती है, बिछड़कर भी जुड़े रहने की संभावना की पेचकश है . कोई एक सूत्र है जो इंसान को इंसान से जोड़ता है, कोशिशें तो होंगी और होती रहेंगी, पर कब तक? क्या रेत के टीले पर बना भवन हवा के थपेड़ों से खुद को बचा पाया है? क्या रेत को मुट्ठी में कैद रख पाना संभव है? कई सवाल अब भी जवाब की तलाश में भटक रहे हैं, सर फोड़ रहे हैं. मानव- मन का प्रवाह अपनी गति से चल रहा है और भाषा का तरल प्रवाह पाठक के मन को मुक्ति नहीं दे रहा है.
"रेलचलित मानस" नामक कहानी अपने उन्वान का प्रतिबिम्ब है. दुनिया के प्लेटफ़ॉर्म पर खड़ी भीड़ का एक हिस्सा है मानव. सफ़र में इस छोर से उस छोर तक का अनुभव ही ज़िन्दगी को मान्यता प्रदान करती है -जो आज के माहौल की आपाधापी में गुज़र जाती है, रूकती नहीं. जो गुज़रती रहे गुज़रने के पहले वही तो ज़िन्दगी है !
अमरेन्द्र जी की कहानियाँ अपनी विषय-वस्तु, वर्णन-शैली के कारण रोचक और पाठनीय है, कभी कहानियाँ एक दुसरे से जुडी हुई, ज़मीन से, जड़ से, मानवता से- जैसे जीवन की धार में अनुभव रुपी मोती पिरोये गए हैं . प्रकृति के हर एक मौसम का वर्णन प्रभावशाली बिम्ब बनकर सामने आता है. इन कहानियों की एक ख़ूबी यह भी है- वे जहाँ से शुरू होती हैं, वहीँ समाप्त होकर, और फिर वहीँ से प्रारंभ होने की सामर्थ्य भी रखती हैं. इस दिशा में एक कदम आगे और आगे बढ़ते रहे इसी शुभकामना के साथ
समीक्षकः देवी नागरानी
न्यू जर्सी, यू. एस. ए. dnangrani@gmail.com,
पुस्तकः चूड़ीवाला और अन्य कहानियाँ, लेखक; अमरेन्द्र कुमार, पन्नेः१७४, कीमतः रु॰125, प्रकाशकः पेंगुइन बुक्स एंड यात्रा बुक्स
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