कविता का भी जो अगर कारखाना होता
जहां हर दिन रची जातीं कवितायें
बाजार की मांग को ध्यान में रखकर
कच्चे माल की उपलब्धि,
कवियों का बाहुल्य
और कविता की खपत को नज़र में रखकर ही
खोले जातें कारखानें ।
सरकार से अनुदान में मिली जमीन
या फिर कर में मिली कटौती
बनती आधार किस राज्य या देश में
खोले जायें कारखाने ।
और भूमंडलीकरण के आज के समय में
क्या आर्थिक और सामाजिक असमानता
कविता के उत्पादन और विक्रय के
निर्णयों को प्रभावित नहीं करते ?
की जाती कवियों की नियुक्तियां
उनकी शिक्षा-दीक्षा, व्यक्तित्त्व
और उनके अनुभव के आधार पर ।
कहीं किया जाता अनुसंधान
कि कैसी होनी चाहिये कविता
कैसे उसकी मांग रखी जाये बरकरार
उपभोक्ताओं की अभिरूचि का आधार
कैसे हो कविता का विकास
रूप-रंग-रस और गंध नया
नया छंद और अलंकार नया ।
या फिर बदली जाती लोगों की अभिरूचियां
सिलसिलेवार और सुनिश्चित योजनाओं के तहत ।
रेडियों-दूरदर्शन और सिनेमाघरों में
नयी कविताओं के आते इश्तेहार
सस्ती और टिकाउं
लम्बी और पतली
सुन्दर और निर्दोष
ताजा और मोहक....
बच्चों-किशोरों-युवकों और बजुर्गों
हर उम्र के लोगों को लुभाने के लिये
होती हर तरह की कवितायें
सबके होते अपने विकल्प
हर कविता की अपनी कीमत होती
हर का होता अपना बाज़ार
हर रोज सुबह कवि आते
हाजिरी देने के बाद
कविता की उत्पादन रेखा पर
कल की पड़ी अधूरी कवितायें
पूरी की जातीं पहले
फिर नये लक्ष्य के आधार पर
शुरु होता कविता का उत्पादन
कविता के दोषों का निरीक्षण
और फिर निराकरण किया जाता
बाजार में भेजने से पहले।
कवियों को मिलती हर महीने मजदूरी
नहीं रहती फिर उनकी आर्थिक मजबूरी
नहीं होते प्रकाशकों के फंदे
या आलोचकों के लटके-झटके
उनके बच्चें भी जाते अच्छे स्कूल
घर में होता सुख और शुकून
कविता के कारखाने खोलने
आती बहुराष्ट्रीय कम्पनियां
देश में होता विदेशी निवेश
स्थानीय कवियों को मिलता अन्तर्राष्ट्रीय मंच
नयी शैली, नया कथ्य और शिल्प नया
नये मनोबल, नयी आकांक्षा और संकल्प नया।
कविताओं की होती छोटी-बड़ी दुकानें
खुल जाते बडे-बड़े माल
लोग अपनी-अपनी हसियत से
खरीद पाते अपनी पसंद की कवितायें।
खास मौसम या त्योहारों पर लगती
कविताओं की खास बिक्री (सेल)
कुछ पुरानी कम बिकने वाली कवितायें
निकाल दी जाती सस्ते दामों पर
और कुछ लोग अपनी हैसियत से
कहीं अधिक कीमत वाली
कवितायें खरीद पातें।
तब कुछ खास कविता को रख पाना
सामाजिक प्रतिष्ठा का चिह्न माना जाता।
और कुछ लोग उसे ललचायी दृष्टि से देखते।
आर्थिक मंदी के दिनों
जब कविता की मांग गिर जाती।
पहले बंद होती कुछ कविताओं का उत्पादन
फिर मंदी के और बढ़ जाने पर
बंद किये जाते कारखानें
छंटनी की जाती कवियों की
खर्चे में कटौती की मार
सबसे अधिक झेलती कविता
क्योंकि तब कविता
वह नहीं होती जो आज है।
*****
Sunday, January 31, 2010
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
कविता बहुत सामयिक है। वास्तव में यह काम तो हो ही रहा है बहुत सी जगहों पर तो यह काम हो ही रहा है। मंचीय कविता प्राय:माँग के अनुसार उत्पादित की जाती है..उत्पन्न नहीं होती।
ReplyDeleteनया विचार-नया भाव..बहुत सुन्दर, बधाई!!
स्नेह,
शैलजा