Friday, April 2, 2010
निर्मल वर्मा जयंती
३ अप्रैल १९२९ को निर्मल वर्मा का जन्म हुआ था। निर्मल वर्मा उन चुने हुए साहित्यकारों में थे जिनकी कृतियों को बार-बार पढ़ा जायेगा। उनकी कृतियों की तुलना श्रीरामचरितमानस या श्रीमद्भागवतगीता से तो नहीं करूंगा लेकिन कला की दृष्टि से मैं उनकी रचनाओं की ओर बार-बार आकृष्ट होता रहा हूं। इस अर्थ में वे मेरे कुछ चुने हुए रचनाकारों में से एक हैं।
प्रेमचंद और उनके परवर्ती साहित्यकारों जैसे भगवतीचरण वर्मा, फणीश्वरनाथ "रेणु" आदि के बाद साहित्यिक परिदृश्य एकदम से बदल गया। खासकर साठ-सत्तर के दशक के दौरान और उसके बाद बहुत कम लेखक हुए जिन्हें कला की दृष्टि से हिन्दी साहित्य में अभूतपूर्व योगदान के लिये याद किया जायेगा। संख्या में गुणवत्ता के सापेक्ष आनुपातिक वृद्धि ही हुई । इसके कारणों में ये प्रमुख रहे - हिन्दी का सरकारीकरण, नये वादों-विवादों का उदय, उपभोक्तावाद का वर्चस्व आदि। उनके जैसे साहित्यकार से उनके समकालीन और बाद के साहित्यकार जितना कुछ सीख सकते थे और अपने योगदान में अभिवृद्धि कर सकते थे उतना वे नहीं कर पाये। उन्हें जितना मान दिया गया उतना ही उनका अनदेखा भी हुआ । जितनी चर्चा उनकी कृतियों पर होनी चाहिये थी शायद वह हुई ही नहीं। वे उन चुने हुए व्यक्तियों में थे जिन्होंने साहित्य और कला की निष्काम साधना की और जीवनपर्यन्त अपने मूल्यों का निर्वाह किया। एक तरह से वे अपने समय के एक अकेले "स्कूल" थे।
हालांकि वे नयी कहानी के जनक के रूप में जाने जाते हैं पर मेरे विचार में वे कहानीकार से बढ़कर चिंतक और दार्शनिक थे। समय, समाज, साहित्य, अध्यात्म और दर्शन पर उनकी समझ और पकड़ पिछली कई सदियों के साहित्यिक मनीषियों से अधिक गहरी थी। "ढलान से उतरते हुये", "पिछली शताब्दी के ढलते वर्षों में", "कला का जोखिम", "शब्द और स्मृति", "भारत और यूरोप: प्रतिश्रुति के क्षेत्र" जैसी पुस्तकें और उनमें संग्रहीत उनके निबंध इसके प्रमाण हैं।
उनकी कहानियों की यात्रा "परिंदे" से शुरु होकर "पिछली गर्मियों" की "जलती झाड़ी" से होती "बीच बहस में" ठहरती हुई "सूखा" के बाद " कव्वे और काला पानी" तक पहुंची तो ऐसा लगा हिन्दी साहित्य को प्रेमचंद का उत्तराधिकारी मिल गया हो। यह प्रचलित अर्थों में नहीं, बल्कि इस अर्थ में कि प्रेमचंद के बाद कहानी की यात्रा को निर्मल वर्मा की कहानियों के नवीन धरातल, उत्तम शिल्प और गहन/ सघन शैली से ही संवर्धित किया जा सकता था । प्रेमचंद की कहानियों का फैलाव और निर्मल वर्मा की कहानियों की कलात्मक गहराई एक दूसरे के पूरक सिद्ध होते हैं। निर्मल वर्मा साहित्यिक कला के ऐसे शिखर पर नज़र आते हैं जिसके पार ढलान ही ढलान दिखायी देती है।
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